कबीर की माया विषयक दृष्टिकोण की समीक्षा कबीर का माया विषयक दृष्टिकोण उनके आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।माया एक ऐसी ठगिनी
कबीर की माया विषयक दृष्टिकोण की समीक्षा
कबीर दास (कबीर) एक प्रसिद्ध भारतीय संत, कवि और समाज सुधारक थे, जिन्होंने 15वीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन को गहराई से प्रभावित किया। उनकी रचनाओं में माया (भौतिक संसार और उसके प्रलोभन) विषय पर गहन चिंतन मिलता है। कबीर का माया विषयक दृष्टिकोण उनके आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
भारतीय दर्शन में उपनिषदकाल से ही माया के सम्बन्ध में विचार-विमर्श होता रहा है। उपनिषदों के अतिरिक्त वैदिक संहिताओं ब्राह्मणों तथा पुराणों में भी माया की चर्चा मिलती है। विद्वानों ने 'माया' शब्द का अर्थ भ्रमजनक शक्ति, छल, मक्कारी या जादू-टोना के रूप में ग्रहण किया है। अद्वैत दर्शन में भी माया को असत्य कहा गया है। सन्त साहित्य में माया पर बहुत अधिक विचार हुआ है। कबीर सहित प्रायः सभी सन्त-कवियों ने माया का उल्लेख किया है। कबीरदास की माया के विषय में मान्यता है कि यह एक ऐसी सर्वशक्तिमान शक्ति है, जो जीव और ब्रह्म के एकाकार होने में अवरोध उत्पन्न करती है। माया ने समस्त संसार को पथ भ्रष्ट कर दिया है। कबीर की माया विश्वमयी नारी के रूप में प्रकट होकर सम्पूर्ण जीवों को ठगती एवं फंसाती रहती है।
माया एक ऐसी ठगिनी है जो सदैव त्रिगुणमयी फाँस हाथ में लिये रहती है और बड़ी मीठी वाणी बोलती है। वह अपने मधुर वाणी के बल पर संसार के समस्त प्राणियों को अपने फन्दे में फाँस लेती है। इस ठगिनी का परित्याग करने के लिए कोई लाख चेष्टा करे, फिर भी यह उसका पीछा नहीं छोड़ती। यह जल, थल और आकाश में सर्वत्र व्याप्त है तथा नानारूप धारण करके जप, तप एवं योग-साधनों में विघ्न डालती है। उदाहरणस्वरूप निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
कबीर माया मोहनी मोहे जांण सुजांण ।
भागा ही छूटै नहीं, भरि भरि मारै बांण । ।
अर्थात् कोई भी व्यक्ति माया के प्रभाव से बच नहीं सकता।सन्तकबीर ने काम, क्रोध, मद, लोभ और मत्सर को माया का पुत्र कहा है। ये माया के पाँचों पुत्र संसार के जीवों को सदैव सताते हैं और नाना प्रकार के नाच नचाते रहते हैं। यह माया बड़ी डाइन है। कबीर कहते हैं -
एक डाइन मेरे मन बसै। नित उठि मेरे जिय को इसै ।
या डाइन के लरिका पाँच । निसि दिन मोहिं नचावै नाच ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि आवागमन के चक्र में यह भौतिक शरीर तो बार-बार मरता रहता है, परन्तु विषयों की वासनाएँ, मन में उत्पन्न होने वाली भाँति-भाँति की इच्छाएँ तथा जीवन के प्रति कामनाओं का अंत कभी नहीं होता है-
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णां ना मुई, यौं कहि गया कबीर । ।
यह संसार बाजार है। इसमें इन्द्रियों के स्वाद (शब्द, रूप, रस, स्पर्श, गंध) रूपी ठग विचरण करते हैं। इसमें माया रूपी वेश्या लाकर बैठा दी गयी। इन सबको देखकर मैंने राम के चरणों में दृढ़तापूर्वक भक्ति कर ली है। कहीं ऐसा न हो कि मैं इनके चक्कर में पड़कर कुछ भी साधना न कर पाऊँ और अपने जन्म को व्यर्थ ही नष्ट कर दूँ -
जग हटवाड़ा स्वाद जग, माया बेसां लाइ ।
राम चरन नीकां गही, जिनि जाइ जनम ठगाइ । ।
कबीर ने इस माया को 'रमैया का जौरु' कहा है, जिसने सारे संसार को लूट लिया है। यह बड़ी मीठी है। इसी कारण इसे छोड़ना बड़ा कठिन है। इसका निर्वाचन करना बड़ा कठिन है, इसी कारण इसे वेदान्त में अनिर्वचनीय कहा गया है। प्रभु की शरण में जाने से ही इस डाइन से मुक्ति मिल सकती है। सारा संसार इसमें आबद्ध है। केवल भक्त ही इस फन्दे को काटकर आवागमन के चक्र से मुक्त हो सकता है। आत्मा और परमात्मा के बीच माया का पर्दा पड़ा हुआ है। ज्ञानी तो उस पर्दे के दूसरी ओर झाँक सकते हैं, परन्तु सर्वसाधारण के लिए यह पर्दा रुकावट है। कबीर के अनुसार सन्त लोग और मुक्तात्मा में माया को दासी बनाकर रखते हैं। इस तथ्य को उन्होंने कितने सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है -
माया दासी सन्त की, ऊँची देइ असीस ।
विलसी अरु लातौ छड़ी, सुमिरि सुमिरि जगदीस ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि माया बडी ही पापिनी है। वह संसार के प्राणियों को फँसाने के लिए अपने हाथ में फंदा लेकर बैठी है। संसार के अन्य लोग तो उसके फंदे में बँध गये हैं, परन्तु कबीर उसके फंदे को काट कर घूम रहे हैं अर्थात् माया कबीर को अपने फंदे में नहीं फँसा पायी है।
कबीर माया पापणीं, फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंदै पड़या, गया कबीरा काटि ।।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कबीरदास माया को पापिनी मानते हैं तथा वे कहते हैं कि ब्रह्म एवं जीव को मिलन में माया सबसे बड़ी बाधक है।कबीर का माया विषयक दृष्टिकोण गहन आध्यात्मिकता और व्यावहारिक जीवन के बीच का संतुलन दर्शाता है। उन्होंने माया को एक चुनौती के रूप में देखा, जिसे पहचानकर और उससे मुक्त होकर ही मनुष्य अपने आत्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। उनकी रचनाओं में माया के प्रति स्पष्ट आलोचना के साथ-साथ उससे मुक्ति का मार्ग भी बताया गया है।
कबीर का यह दृष्टिकोण आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि आधुनिक समय में भी मनुष्य भौतिकवाद और सांसारिक मोह-माया में उलझा हुआ है। उनकी शिक्षाएं हमें सरल जीवन, आत्मचिंतन और ईश्वर भक्ति की ओर प्रेरित करती हैं।कबीर की माया विषयक दृष्टिकोण एक गहन आध्यात्मिक संदेश देता है, जो मनुष्य को भौतिकता के बंधन से मुक्त होने और आत्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होने का मार्ग दिखाता है। उनकी रचनाएं आज भी मानव जीवन को सही दिशा देने में सक्षम हैं।
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