क्षेमेन्द्र का औचित्य विचार क्षेमेन्द्र का औचित्य विचार मध्यकालीन संस्कृत साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। क्षेमेन्द्र, जो कश्मीर के एक प्रसि
क्षेमेन्द्र का औचित्य विचार
क्षेमेन्द्र का औचित्य विचार मध्यकालीन संस्कृत साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। क्षेमेन्द्र, जो कश्मीर के एक प्रसिद्ध कवि, विद्वान और आलोचक थे, ने अपने ग्रंथों में औचित्य के सिद्धांत को विस्तार से समझाया है। उनका मानना था कि काव्य या साहित्य की सुंदरता और प्रभावशीलता उसके औचित्य पर निर्भर करती है। औचित्य का अर्थ है उचितता, यानी किसी भी रचना में हर तत्व का सही स्थान, सही समय और सही मात्रा में होना। क्षेमेन्द्र के अनुसार, जब काव्य में शब्द, अर्थ, भाव, अलंकार और रस सभी का संतुलित और उचित प्रयोग होता है, तभी वह सही अर्थों में सफल माना जा सकता है।
काव्य की आत्मा की खोज में आलंकारिकों ने अलंकार से जन्मे चमत्कार को ही काव्य का प्रमुख लक्ष्य स्वीकार किया था। क्षेमेन्द्र ने चमत्कार का उदय औचित्य से माना क्योंकि औचित्य के अभाव में काव्य में उस गुण का जन्म नहीं होता जो किसी श्रोता अथवा सहृदय को आकर्षित कर सके। यह औचित्य ही रस का भी आधार है अतः चमत्कार का, जो औचित्य से सम्बन्धित है, रसानुभव में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके लिये उन्होंने 'लावण्य' शब्द का प्रयोग किया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार यौवन से परिपूर्ण होते हुए भी लावण्य के बिना कोई स्त्री आकर्षक नहीं लगती, उसी प्रकार चमत्कार-विहीन काव्य भी अनाकर्षक होता है। इस प्रकार औचित्य का सम्बन्ध चमत्कार से, चमत्कार का लावण्य से और लावण्य का सुन्दरता से स्थापित किया गया है। क्षेमेन्द्र की प्रसिद्ध रचना “औचित्य विचार चर्चा” है।
औचत्य के विचार का सर्वप्रथम संकेत भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में दिखाई देता है कि पात्रों की आयु के अनुरूप वेशभूषा, वेश के अनुरूप क्रिया-कलाप और चेष्टाओं के अनुरूप संवाद तथा संवाद के अनुरूप अभिनय होना चाहिए। इस प्रसंग में भरतमुनि ने 'अनुरूप' शब्द का प्रयोग औचित्य के अर्थ में किया है। उन्होंने इसकी कसौटी लोकव्यवहार को माना है। यशोवर्मन ने सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग अपेक्षित अर्थ में किया है। उन्होंने वाणी-औचित्य तथा पात्र-औचित्य का उल्लेख किया है। शास्त्रीय विवेचन में इस शब्द का प्रयोग रुद्रट ने भी किया है। क्षेमेन्द्र से पूर्व इसका विचार करने वाले प्रसिद्ध शास्त्रकार आनन्दवर्द्धन हैं। उन्होंने औचित्य के पाँच हेतु माने हैं-भाव, रस, सन्धि एवं सन्धि-अंग, रसों के उद्दीपन तथा प्रशमन की योजना तथा अलंकार। आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति के प्रसंग में भी वक्रता का मूल आधार औचित्य ही माना है। इस प्रकार क्षेमेन्द्र ने जिस सिद्धान्त को दृढ़तापूर्वक स्थापित किया उसका विचार क्रमशः पूर्व में ही विकसित हो चुका था। क्षेमेन्द्र ने औचित्य की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिसके जो अनुरूप हैं उसे उचित कहते हैं। यह रस का साधन है। काव्य का प्रमुख उद्देश्य रस है। वे स्वीकार करते हैं कि काव्य में चमत्कार और चारुता औचित्य के कारण ही आती है। अलंकारों की भी सार्थकता उनके उचित प्रयोग पर आधारित है।
क्षेमेन्द्र ने औचित्य के निम्न स्वरूप गिनाये हैं—
- भाषा तथा शैली का औचित्य ।
- रचना-विधान का औचित्य ।
- विषय का औचित्य ।
- कल्पना अर्थात् बिम्ब योजना का औचित्य का क्षेत्र बहुत विस्तृत है।
सौन्दर्य की अवधारणा का प्रमुख आधार औचित्य ही है। केवल गौर वर्ण वाली स्त्री को सुन्दर नहीं कह सकते और न केवल कोमल पंखुड़ियों तथा मोहक रंग के कारण पुष्प को । वस्तु तभी सुन्दर होती है जब उसके अंग-प्रत्यंग की योजना औचित्यपूर्ण हो । सम्भवतः क्षेमेन्द्र यहां कुछ उसी प्रकार की बात कहते हैं औचित्य-दृष्टि मानव-स्वभाव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसी के प्रभाव से हम किसी सुन्दर कृति को देखकर प्रसन्न होते हैं और कुरूप वस्तु को देखकर नाक- मुँह सिकोड़ने लगते हैं। औचित्य की अवस्था प्रत्येक विद्या पर लागू होती है तथा उनके अंगों- उपांगों में भी देखी जाती है। रस को औचित्य ही स्थायी बनाता है। औचित्य की दृष्टि कलाकार और इस प्रकार ओचित्य एक अत्यन्त व्यापक धारणा है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से लेकर कला-जगत् तक विस्तृत हैं । औचित्य के न होने पर कोई भी कलाकृति सुन्दर नहीं कही जा सकती ।
क्षेमेन्द्र ने औचित्य को काव्य का आधारभूत सिद्धांत माना है। उनके अनुसार, यह न केवल काव्य बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण है। उनका यह विचार आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि संतुलन और उचितता किसी भी कार्य को सफल बनाने के लिए आवश्यक हैं। क्षेमेन्द्र के औचित्य सिद्धांत ने संस्कृत साहित्य को एक नई दिशा दी और आने वाले कवियों और आलोचकों के लिए मार्गदर्शन का काम किया। उनका यह दृष्टिकोण न केवल साहित्यिक बल्कि जीवन के व्यावहारिक पहलुओं को भी समझने में मददगार साबित हुआ है।
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