मन में हिमालय

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मन में हिमालय हिमालय सदा से मुझे आकर्षित और अभिभूत करता रहा है और सामान्यतया किसी न किसी बहाने चर्चा [१] में बना रहता है पर इस बार चर्चा कुछ अलग कार

मन में हिमालय


हिमालय सदा से मुझे आकर्षित और अभिभूत करता रहा है और सामान्यतया किसी न किसी बहाने चर्चा [१]  में बना रहता है पर इस बार चर्चा कुछ अलग कारणों से है जिसका जिक्र इस लेख में करेंगे। वैसे चर्चा के विषय समय और परिस्थिति के साथ फोकस में आते-जाते रहते हैं। कभी मैं मध्य हिमालय की वनाच्छादित श्रंखलाओं से अभिभूत होता था, कभी उसके हिमनदों से अवतरित सरिताओं के वैविध्य एवं प्रवाह पर। उत्तराखंड में मुक्तेश्वर, बिनसर और कौसानी से क़मश: निकटतर होते जाते विराट हिमालय के अतुलनीय सौन्दर्य पर अक्सर मुग्ध हो जाता हूं और उसकी धवल दमकती चोटियां मुझे अभिभूत कर देतीं हैं।
 
इन सबके इतर भी हिमालय मेरे लिये बहुत कुछ है। उसके  अनेक भ्रमण पथ (हाइकिंग ट्रेल्स) मेरे लिये विशेष आनन्द और अनुभूति के स्रोत रहे हैं। तब मैं उत्सुक और उत्साहित रहता था कहीं जाने या पहुंचने हेतु नहीं, अपितु प्रेरणादायी पथों पर दोहरे भ्रमण का स्वाद लेने के लिये। मुझे याद है कि कैसे वे सामान्य भ्रमण अक्सर ही दोहरे भ्रमण में रूपांतरित हो जाते; मेरे पग और आंखें उन हाइकिंग ट्रेल्स का अनुगमन करतीं रहती, मन निज एवं निजेतर संदर्भों से जुड़ जाता और अंदरूनी भ्रमण पथों पर जाने कहां कहां विचरण कर आता।
 
ऐसे ही एक अत्यंत रोचक दोहरे भ्रमण की चर्चा राँबर्ट पीरसिग ने अपनी चर्चित पुस्तक [२] में की है जिसमें लेखक मोटर सायकिल पर भ्रमण करता है और दृश्यावली की चर्चा के साथ-साथ उस मशीन के रख-रखाव की जरूरत पर बात करने लगता है और इस तरह बात से बात निकलती चली जाती है जिसमें जीवन के कई छुए-अनछुए पहलुवों की दार्शनिक चर्चा शामिल हो जाती है। कुछ ऐसे ही दोहरे भ्रमण के अंतरंग पहलुवों से रूबरू होना मेरे साथ अक्सर होता रहा है जब हिमालय दर्शन व भ्रमण के साथ मैं इस पर्वत श्रंखला के जन्म एवं विकास पर ध्यान केन्द्रित करने लगता हूं और साथ ही पौराणिक संदर्भों से रूबरू हो जाता हूं।
 
मन में हिमालय
एक अपरिभाषित अनुभव मुझे सराबोर कर जाता है जब मैं उन पौराणिक संदर्भों को आज के  वैज्ञानिक तथ्यों के समक्ष तुलनात्मक संदर्भ में रखने का प्रयास करता हूं। इस प्रक्रम में कभी इस धरती का लम्बा इतिहास मेरी आंखों के आगे गुजरता नजर आता है तो कभी मानव जाति का।  कहते हैं मानव जाति का सबसे पुराना निवास [३] मध्य पूर्वी अफ्रीका की रिफ्ट घाटी, विशेषकर अवाश नदी का मध्यवर्ती क्षेत्र, था जहां से लगभग साठ-सत्तर हजार साल पहले एक बड़ा विस्थापन उत्तर की ओर हिने लगा जिसमें अफ्रीका का उत्तरी भाग एवं एशिया का कुछ भाग शामिल था। इन्हीं मानव समूहों में से कुछ भारतीय उप महाद्वीप पहुंचे और उपजाऊ जमीन व अच्छी आबोहवा देख बसने का निर्णय लिया। यही संभवत: पहले भारतवासी थे हमारे पूर्वज; जरा गौर करें अफ्रीका के सत्तर हजार साल पहले के निवासी भी तो हमारे पूर्वज ही कहे जायेंगे। सच में कैसा लगता है जब हम सोचने का प्रयास करते हैं कि आज खंड-खंड बंटे मानव एक दूसरे के दूरस्थ ‘कजिन’ ही तो हैं।
  
तब देशों के नाम चलन में न आये होंगे और न ही राष्ट्र की कल्पना साकार हुई होगी। यह सब अपेक्षाकृत हाल की बातें हैं क्योंकि कृषि संबंधी जानकारी आज से महज बारह से पंद्रह हजार साल पहले उपलब्ध हो सकी और स्थायी निवास का चलन भी संभवत: तभी हुआ। तात्पर्य यह कि तथाकथित सांस्कृतिक विकास का बड़ा ताम-झाम हाल का है यानी करीब आठ दस हजार साल पहले का। लेकिन भाषा अपने आरम्भिक चरणों में अफ्रीका से विस्थापन के बहुत पहले  विकासोन्मुख रहने लगी थी और उसके उद्भव को सांस्कृतिक विकास का प्रथम चरण मान कर चलना उचित होगा।

भारतीय भूभाग की पहचान और विशिष्टता का हिमालय से जो नाता है उसके कई आयाम एवं  पहलू हैं। भगवान शिव शंकर का हिमालय से जो नाता है उसके भी कई पहलू है़। पौराणिक संदर्भ में हिमालय का वैयक्तीकरण भी हुआ और उनकी पुत्री से शिवजी का विवाह भी। गंगा के धरती पर अवतरण में भी भगवान शिव की भूमिका थी। भोगोलिक परिवेश अगर हिमालय जैसा हो तब कल्पना भी उसी स्तर की होगी। भारतीय  पौराणिक साहित्य की पृष्ठभूमि में विराट हिमालय श्रंखला की भूमिका निर्विवाद है। और पौराणिक साहित्य के इतर भी यह भारतीय अस्मिता के पोर पोर को सिंचित करता रहा है। ‘हिमालयों नाम नगधिराज’ [4] कहकर संबोधित करें या ‘हमसाया आसमा का’ [5] कहें बात सिर्फ इतनी है इस पर्वत श्रंखला से हमारी पहचान पुरानी है और हमारी अपनी पहचान उसके जिक्र के बिना अधूरी है।    

उद्भव
हिमालय के जन्म और विकास की कथा भी रोचक है और किसी कल्पना की उड़ान को भी पीछे छोड़ने में सक्षम है। दो विशाल भूखंडों के टकराने से बीच का हिस्सा कई स्थानों पर ऊपर उठ जाता है और पर्वत श्रंखला के उद्भव का कारण बनता है। यह बात विश्व की अन्य पर्वत श्रंखलाओं के भी उद्भव का कारण रही है। दक्षिण अमेरिका की विराट पर्वत श्रंखला ऐंडीज और यूरोप की आल्प्स श्रंखला के जन्म की दास्तान भी हिमालय से मिलती जुलती है। उत्तर पूर्वी अमेरिका स्थित एपलेशियन श्रंखला भी इसी श्रेणी में आती हैं पर उनकी ऊंचाई इस श्रेणी की अधिकतर श्रंखलाओं से काफी कम है। इसका कारण यह हो सकता है कि ये पर्वत बहुत पुराने हैं लगभग ३० करोड़ साल। आरम्भ में यह काफी ऊंचे रहे होंगे लेकिन लम्बे अंतराल में कटाव, टूट फूट और अपक्षरण से ऊंचाई  में यह परिवर्तन आया।
 
धरती की टैक्टोनिक परतों में हलचल होती रहती है और बड़ी हलचल भूकम्प का कारण बन जाती है। बात हिमालय के उद्भव की हो रही है वह अजन्मा नहीं उसका भी जन्म हुवा करोड़ों साल पहले – अनुमानित चार से पांच करोड़ साल। सामान्यतया इस पर यकीन नहीं होता लेकिन इन बातों के लिये ठोस आधार मौजूद हैं। हिमालय में हो रहे क्रमिक परिवर्तन धीरे धीरे होते हैं और उन्हें सरलता से अनुभव नहीं किया जा सकता। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से तर्क विधि द्वारा ऐसा किया जा सकता है और यह प्रक्रिया विज्ञान विधि का आधार है।

भूगर्भ शास्त्र की जानकारी के अनुसार [४] भारतीय भूभाग पहले एशिया महाद्वीप का हिस्सा नहीं अपितु एक अलग भूखंड था जो उत्तर की ओर गतिमान था और एशिया महाद्वीप के दक्षिण पूर्व में तिब्बत वाले भूभाग से टकरा गया। दो विशाल भूखंड टकराने से उत्पन्न विराट दबाव के कारण धरती का वह भाग उपर उठा और चूंकि दबाव लगातार बना रहा ऊपर उठने की यह प्रक्रिया आज भी चली आ रही है धीरे-धीरे मसलन साल भर में कुछ इंच। एक इंसान के जीवन काल में यह सूचना कोई खास मायने नहीं रखती पर बडी अवधि में इसका असर दिखाई दे सकता है। धरती की निचली परतों में लगातार चल रही हलचल भूकम्प के रूप में अपनी उपस्थिति का भान आसानी से करा देती है जिसका एक नमूना हाल की त्रासदी में दीख पड़ता है जिसमें तुर्की एवं सीरिया  में तहस नहस का विकराल रूप प्रस्तुत हुआ है। इस तरह के हालात हिमालय एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में संभव हो सकते हैं जहां कभी भी बडे भूकम्प की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। अक्सर यह जिक्र होता रहा है कि इस क्षेत्र में बड़ा भूकम्प एक सौ सालों से नहीं आया और यह कि इसके आने की संभावना बनी हुई है।
 
कुछ समय पहले उत्तराखंड में जोशीमठ की चर्चा आम थी जहां सैकड़ों मकानों में दरारों के आने से दहशत का माहौल था केवल उन लोगों के लिए नहीं जो प्रभावित हुए, अपितु उन लोगों के लिये भी जो हिमालय के निकटवर्ती और दूरस्थ क्षेत्रों में रहते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक है  क्योंकि हिमालय की दास्तान हमारे सामने है जिसमें अतीत की घटनाओं की जानकारी तो है ही भूगर्भ शास्त्रीय जानकारी भी है। जोशीमठ की त्रासदी जमीन के नीचे की परतों की हलचल का एक छोटा सा नमूना था जिसे किसी भी विकास कार्य की रूपरेखा बनाते समय नजरंदाज नही किया जाना चाहिए। यह सब हमें सोचने पर मजबूर करता है, न केवल अपने या मानव मात्र के बारे में अपितु पूरी धरती और उसके जीवों के बारे में; साथ ही धरती के पर्यावरण के बारे में भी। ऐसा इसलिए कि धरती से हमारा नाता गहन है और यह भी कि जो संतुलन धरती के पर्यावरण एवं जीवन के विकास के बीच बना रहा है करोड़ों  सालों से वह आज कुछ डगमगाने लगा है और यह मात्र कोरी कल्पना नहीं, इसके साफ संकेत भी मिल रहे हैं जिनकी चर्चा राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अक्सर की जाने लगी है यद्यपि जमीनी स्तर पर कोई ठोस कार्यवाही होने में अभी समय लगेगा।
 
इस लेख में हिमालय हमारी वर्चा के केन्द्रबिंदु में है। हिमालय है नगाधिराज, देवतात्मा हिमालय जिसने इस सभ्यता को एक पहचान दी है और जो इस देश के जनमानस के चेतन, अवचेतन एवं अचेतन को पूरी तरह अभिभूत करता है। अगर पहचान की बात करें तो स्पष्ट है कि यह श्रंखला इस भूमि को शेष एशिया से भौगोलिक पृथकता प्रदान करती है। पृथकता दोनों ओर के भूखंडों के लिए समान है पर हिमालय की उपस्थिति का बड़ा लाभ भौगोलिक कारणों से इस भूमि को ही मिला है जो उसको एक आर्थिक समृद्धि प्रदान करता है। 

मन की बात
मुझे लगता है हिमालय मात्र एक पर्वत न होकर एक जीवंत इकाई है जिसकी प्रतिछाया हमारे जीवन को प्रेरित और समृद्ध करती चलती है। धरती की परतों का विस्थापन, यदा-कदा उनमें टकराव, पर्वतों का निर्माण और उठान – अगर गौर करें तो यहां बहुत कुछ है जो हमारे मन की संरचना एवं उसके अंदर चल रही प्रक्रियाओं से मेल खाता है। इसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं होनी चाहिये क्योंकि जैविक विकास प्रक्रिया परिवेश की समृद्धता एवं गुणवत्ता से अंतरंग रूप से जुड़ी है। संभवत: यही सब और इसके आगे का भी सोच कर विज्ञानविद और लेखक जेम्स लवलाँक ने कहा होगा:

जैविक विकास एक विशेष प्रकार का नृत्य है जिसमें जीवित इकाई और उसका परिवेश नर्तक द्वय हैं। इस नृत्य का ही प्रतिफल है गाया।

गाया [५] जो ग्रीक पौराणिक साहित्य में जीवंत धरती का प्रतीक है यहाँ चर्चा का केन्द्रीय विषय है। बात इतनी ही न होकर इसके आगे की भी है कि इसी जीवंत इकाई का एक अंश मानव भस्मासुर की सी भंगिमा में आ गया है जो धरती और स्वयं के लिये भी मुश्किलें [६] पैदा कर रहा है। नर्तक द्वय का यह नर्तक उस संतुलन को लगभग नष्ट कर चुका है जो जीवन और उसकी गुणवत्ता के लिये जरूरी हैं।
   
मेरा मन बार बार फिर लौट आता है हिमालय की ओर, और मैं पूर्व प्रकाशित लेख [१] से उद्धृत करने से स्वयं को रोक नहीं सकूंगा:

एक हिमालय अंदर भी
एक हिमालय सामने है दूसरा मेरे मन अभ्यंतर में, पहला साकार है दूसरा निराकार।हिमालय तब एक पर्वत मात्र न होकर मेरे लिये प्रतीक बन जाता है कठिन संघर्ष से उपजी एक रचना का, प्रसव पीड़ा के उपरान्त एक नव आगमन का। मेरे मन की भट्टी में सब पकता रहता है, पृथ्वी – जो हमारा घर है व सूर्य, हमारा ऊर्जा-स्रोत - हमारे अस्तित्व के जनक और गवाह। सूर्य भी अजन्मा नहीं, पृथ्वी भी नहीं; जो जन्मा है उसका अंत होगा ही। यह है विराट के कैनवस पर रचा जा रहा विराट का खेल। हम जानते हैं कि हर चीज – तारे, सूर्य, दुनिया, जीव-जगत – परमाणुओं से बनी हैं और परमाणु की क्या कहें, वह भी तो जन्मा है तारों की कोख से। यह भी रोमांचक कथा है कि पहले केवल हाइड्रोजन के परमाणु थे शेष सभी परमाणु तारों के गर्भ में करोड़ों डिग्री के ताप पर निर्मित हुए।

हिमालय भी जन्मा है और अभी शिशु ही है चंचल भी है नटखट भी; यह हिमालय मेरे लिये बहुत कुछ है लेकिन सबसे अहम मेरे लिये वह संघर्ष व ऊंचाई का प्रतीक है तो स्रोत भी है हिम का, हिमनद का और सरिता का। अब हिमनद की ही बात करें, बात से बात निकलने लगेगी कि हिमनद किस तरह विलुप्त होने की स्थिति में आ रहे हैं वैश्विक तापवृद्धि के प्रभाव से। वैसे धरती का औसत ताप सदा एक सा नहीं रहा करता उसमें उतार चढ़ाव आते हैं पर इस बार की ताप वृद्धि वायुमंडल में प्रदूषण की वजह से है विशेषकर कार्बन डाइ अँक्साइड का प्रतिशत बढ़ जाने के कारण। इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि निकट भविष्य में स्थिति में कोई सुधार होगा। और सुधार तभी संभव है जब इंसान की जीवन शैली में फिर एक बार परिवर्तन हो जो जीवंत धरती के संतुलन को बनाये रखने में सहायक हो। 

बात मन के हिमालय की
बात शुरू हुई थी मेरे मन में बसे हिमालय की और जा पहुंची मन के हिमालय तक।हमारे मन के अंदर की परत दर परत और उसमे हो रही हलचल हमारे जीवन का अंतरंग हिस्सा है जो चेतन, अवचेतन एवं अचेतन के स्तर पर निरंतर होती रहती है जिनमे से  ,मेज़ी केवल कुछ का प्रत्यक्ष ज्ञान हमें हो पता है। और शायद ही कोई हो जो जीवन के किसी न किसी दौर मे इन से प्रभावित न हुवा  हो। परतो की अनवरत हलचल और उनके बीच की निरंतर चलती टकराहट विध्वंश का बोध देती है और सृजन का भी। हिमालय जन्मा था सृजन और विध्वंश की इसी प्रक्रिया के तहत। मन मे भी कुछ यही होता है जो हमें तोड़कर रख देता है और कई बार अवसाद के कगार तक पहुंचा देता है। इसी उठा पटक और तोड़ फोड़ के बीच कोई विचार जन्म लेता है और आगे बढ़ता चला जाता है। इंसान की मनोवैज्ञानिक दशा बहुत कुछ इन्ही हलचलों एवं टकराहटों का निष्कर्ष है। सृजन की बात करे वह भी तो ऐसी ही हलचलों और टकराहटों से जन्म लेता है।हर सृजन मन का एक हिमालय ही तो है।
  
हिमालय गाथा [7]
सुदूर अतीत की बात
यही करीब  पांच करोड़ साल
टकराये दो विराट भूखंड 
एक जलजला सा उठा
विध्वंष का अनोखा मंजर
एक विराट उथल पुथल
चुप देखता रहा आसमान।

सृष्टि जन्म लेती है
विनाश की क्रोड़ से
तभी एक शिशु जन्मा
धरा की कोख से उठा, बढ़ा
बढता चला आया;
सोचा नाम क्या होगा
कवि-मन (कालिदास) ने कहा:
हिमालयो नाम नगाधिराज:
पूर्व से पश्चिम तक धरा को आलिंगन में लेता
भारतीय भूखंड का मानदण्ड।

सृष्टि और विनाश, अनवरत चलता खेल
जैसा जमीन के ऊपर लगा 
अंदर वैसी ही पेलमपेल
भूमिगत परतों का दाब
भूचाल ले आता है
इन सब विपदाओं के बावजूद
हिमालय उठता चला जाता है।

कैसा जजबा है
हर चोट उठा देती है उसे
सामने का यह मंजर प्रेरित करता लगा मुझे
एक हिमालय मन में हमारे
संघर्षों में जन्मे अनुभवों से सराबोर
बात सिर्फ इतनी समझनी है
ऊंचाई का रास्ता कांटों से गुजरता है
सृजन और विध्वंष का चक्र
यों अनवरत चलता है।  


[१] चंद्रमोहन भंडारी, भारतीय जनमानस मे हिमालय: संदर्भ नये, पुराने, सेतु, फरवरी २०१९.
[२]  राबर्ट पीरसिग, Zen and the Art of Motorcycle Maintenance, A Bantam New Age Book, 1981. 
[३]  Yuval Noah Harari, Sapiens: A Brief History of Humankind, Penguin Random House.
[४]  Russell Banks, Continental Drift, Harper Perennial Modern Classics, 2007 
[५] James Lovelock, Gaia, Oxford University Press, 1979.
[६] James Lovelock, Vanishing Face of Gaia, Books, 2010. 
[7] चन्द्र मोहन भण्डारी, हिमालय गाथा, सेतु पत्रिका, अगस्त 2022. 


चन्द्रमोहन भंडारी भौतिकी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पांच दशकों तक जुड़े रहे, छात्र, शोधार्थी और अध्यापक के रूप में। साथ ही विज्ञान-दर्शन, पर्यावरणीय संदर्भों एवं साहित्य में उनकी रुचि सदैव बनी रही। विज्ञान से जुड़े विषयों पर उनके लेख ‘आविष्कार’ एवं ‘विज्ञान’ पत्रिकाओं में छपते रहे। अवकाश-प्राप्ति के बाद अधिक समय मिला साहित्य साधना के लिये और उनके लेख, कविताऐं व कहानियां सेतु, Muse India, Indian Ruminations एवं Mainstream Weekly पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। उनकी पुस्तक Nothing But All- an enquiry into the nature and implications of Modern Science किताब महल, इलाहाबाद से 1997 प्रकाशित हुई।अंग्रेजी कहानियों का संग्रह Floating Islands Notion Press से 2020 में प्रकाशित। हिंदी निबंधों का संग्रह ‘मानवीय अभिप्रायों की डगर’ ई-पुस्तक रूप में सेतु प्रकाशन से 2022 में प्रकाशित।हिन्दी कहानियों का संग्रह ‘बस यों ही तथा अन्य कहानियाँ’, अस्तित्व प्रकाशन, 2024॰  पिट्सबर्ग से प्रकाशित सेतु द्विभाषी पत्रिका की ओर से वर्ष 2019 के लिये सेतु उत्कृष्टता सम्मान से अलंकृत।

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हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: मन में हिमालय
मन में हिमालय
मन में हिमालय हिमालय सदा से मुझे आकर्षित और अभिभूत करता रहा है और सामान्यतया किसी न किसी बहाने चर्चा [१] में बना रहता है पर इस बार चर्चा कुछ अलग कार
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiEKVbFxl5NjYcqaEQilDRmtYo7X5I-QZ7h6FoF8TbIUihTtMa6coD3gwfnFxqLczC5UsUu7Du_ZYvFBVDafEqFnLxKlZl6OwkJ6AnbWf-HmSZevtj65NZ9Xbg216t1HUHo1Is1hU9V9E-9Fw_ltdkeeZ_rPgmXpPDbvrZ3owyxP4QRCctmZfJilZFKwZDL/w239-h320/man-me-himalaya.jpg
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