रामचरितमानस में सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों का महत्व रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित एक ऐसा महाकाव्य है जो न केवल एक धार्मिक ग्रंथ के रूप
रामचरितमानस में सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों का महत्व
रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित एक ऐसा महाकाव्य है जो न केवल एक धार्मिक ग्रंथ के रूप में पूजा जाता है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और मानवीय मूल्यों का भी एक अद्वितीय उदाहरण है। इस ग्रंथ में रचे गए पात्र और उनके आचरण हमें जीवन के महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाते हैं।
महाकवि तुलसीदास कृत 'रामचरित मानस' सारे संसार में ख्याति प्राप्त महाकाव्य है। इस ग्रन्थ ने सबसे अधिक आदर-सत्कार, श्रद्धा-विश्वास और लोकप्रियता भी अर्जित की है। रामचरित मानस की रचना चैत मास की नवमी संवत 1631 को राम जन्म भूमि अयोध्या में प्रारम्भ की गयी तथा मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी दिन रविवार संवत् 1633 को पूर्ण हुई। इस तरह 2 वर्ष 7 माह और 7 दिन में 7 काण्ड 1774 कड़वक, 5100 चौपाइयाँ और 4890 सोरठों वाले इस विशालकाय, महिमा मण्डित महाकाव्य का सृजन कार्य हुआ। इसकी रचना प्रारम्भ करने का दिवस रामजन्म-दिवस अर्थात् राम नवमी का था ।
रामचरित मानस हिन्दी का एक ऐसा महाकाव्य है जिनमें तुलसीदास जी ने मर्यादा- पुरुषोत्तम भगवान् श्री राम के माध्यम से मानव जीवन के आदर्श मूल्यों की स्थापना की है। यह सांस्कृतिक गरिमा, काव्यशास्त्रीय नियम, काव्य वैभव और महाकाव्यत्व की दृष्टि से भी अति श्रेष्ठ है। यह लोकहित, मानवतावाद, लोकमंगल, समन्वयवादी विचारधारा, लोक-कल्याण आदि भावों से भरा पड़ा है। डॉ० सुरेशचन्द्र निर्मल ने रामचरित मानस के महत्त्व के विषय में लिखा है- “यह महाकाव्य युग-इतिहास और संस्कृति का अक्षय और अमर भण्डार भी है। कवि प्रवर ने इसी के माध्यम से, अतीत या समकालीन नहीं, वर्ग या सम्प्रदाय मात्र का नहीं, मानव मात्र के लिए और मानव मात्र के इतिहास एवं संस्कृति विकास का दिग्दर्शन कराया है।” रामचरित मानस में मानव जीवन के विभिन्न मूल्यों का बखूबी निर्वाह किया गया है। इसका परीक्षण निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर किया जा सकता है-
इतिहास एवं संस्कृति बोध
रामचरित मानस में इतिहास एवं संस्कृति का सुन्दर समन्वय किया गया है। भारतीय संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों का इस ग्रन्थ में अच्छी प्रकार से निर्वाह किया गया है। मानस की रचना में यद्यपि भ्रमर वृत्ति से गोस्वामी जी ने समस्त उपलब्ध ग्रन्थों के भाव रखे हैं। प्रमुख आधारभूत ग्रन्थ रामायण, आध्यात्म रामायण, प्रसन्न राघव नाटक, हनुमन्नाटक, भागवत और गीता हैं। इन ग्रन्थों के प्रक्षिप्तांशों का मानस में समावेश से इतिहास का सम्मिश्रण हो गया है।
उसमें तत्कालीन सांस्कृतिक तत्त्वों का बखूबी चित्रण किया गया है। मानस चरित्र- प्रधान ग्रन्थ है इसके पात्र काव्य के रूप में सामने नहीं आते, वरन् ऐसा जान पड़ता है कि जीवन में इनको देखा है। इसके साथ ही साथ घटना-संघटन और क्रमिक विकास महाकाव्य जैसा है। चारित्रिक विशेषताएँ, जीवन की विषम समस्याएँ, सांस्कृतिक उद्घाटन, महान् घटनाएँ तथा इनके फलस्वरूप गम्भीर भाव प्रवाह चरित्रों और घटनाओं का विशद चित्रण है।
सामाजिक व पारिवारिक आदर्श
तुलसीदास जी ने अपनी काव्य रचना का मूल उद्देश्य लोकमंगल स्वीकार किया है। लोकमंगल का विधान तभी हो सकता है जब समाज एवं परिवार में नैतिक मूल्यों की स्थापना हों तथा उदात्त जीवन मूल्यों पर सबका ध्यान केन्द्रित हो। रामचरित मानस में तुलसीदास की दृष्टि रामकथा के माध्यम से आदर्श जीवन मूल्यों की स्थापना करने की ओर केन्द्रित रही है।
पारिवारिक आदर्श प्रस्तुत करते हुए तुलसी ने विभिन्न पात्रों को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है। सीता पतिव्रत धर्म का आदर्श प्रस्तुत करती हुई पति का अनुगमन करते हुए चौदह वर्ष का वनवास स्वयं ले लेती हैं। राम आदर्श पुत्र हैं जो पिता की आज्ञा पालन करने हेतु, राजसिंहासन को त्यागकर वन गमन हेतु तुरन्त प्रस्तुत हो जाते हैं और कैकेयी से कहते हैं-
सुनु जननी सोइ सुत बड़ भागी। जो पितु मातु वचन अनुरागी । ।
तनय मातु पितु तोष निहारा । दुर्लभ जननि सकल संसारा ।।
अयोध्या के सारे नर-नारी भरत के प्रेम की सराहना करते हैं, और उन्हें श्रीराम के प्रेम की साक्षात् प्रतिमूर्ति बताते हैं-
भरतहिं कहहि सराहि सराही ।
राम प्रेम मूरति तनु आही ।।
रामचरित मानस में पति का आदर्श-रूप, भाई का आदर्श रूप, नृप का आदर्श रूप, पत्नी का आदर्श रूप सब कुछ वर्णित है।
लोक धर्म एवं मर्यादावाद
तुलसी ने मानस के माध्यम से समाज में लोकधर्म एवं मर्यादावाद की प्रतिष्ठा की ओर ध्यान दिया है। लोक धर्म के तीन प्रमुख अंग - ज्ञान, कर्म व उपासना, समाज की परिस्थिति के अनुकूल प्राचीनकाल से ही भारत में प्रतिष्ठित हैं। मनुष्य के जीवन को पूर्णता की स्थिति में लाने के लिए इन तीनों का सामंजस्य आवश्यक है। इसी सामंजस्य का भाव लेकर तुलसी जी ने उस समय भारतीय जनमानस के मध्य अपनी अलख जगाई, जिस समय नये-नये धर्म सम्प्रदायों के कारण आर्य धर्म का व्यापक स्वरूप धूमिल हो रहा था। शैवों, वैष्णवों, शाक्तों और कर्मठों में विरोधाभास की स्थिति तो थी ही, मध्य में मुस्लिम समाज के प्रति विरोध प्रकट करने के लिए अशिक्षित जनता को साथ लगाने वाले अनेक नये-नये सम्प्रदाय विकसित हो चुके थे। सगुण एवं निर्गुण ब्रह्म को मानने वाले आपस में एक दूसरे को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे हुए थे। ऐसी स्थिति देखकर तुलसी जी ने लिखा-
सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा ।
गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा ।।
तुलसी का रामचरित मानस आद्यांत मर्यादा भाव की व्यंजना करता है। यह मर्यादा गुरु के प्रति, माँ के प्रति, पिता के प्रति, भाई के प्रति, पत्नी के प्रति और समाज के प्रति देखी जा सकती है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम की दिनचर्या को प्रस्तुत करते हुए महाकवि तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान् राम सुबह उठकर सर्वप्रथम अपने माता-पिता एवं राजगुरु को प्रणाम करते हैं-
प्रातःकाल उठि के रघुनाथा ।
मातपिता गुरु नावहिं माथा ।।
राज्यादर्श का चित्रण
राज्यादर्श का सुनियोजित एवं सुस्पष्ट रूप 'रामचरित मानस' में दृष्टिगोचर होता है। समाज को अच्छे ढंग से परिचालित करने के लिए किन बातों पर ध्यान रखना आवश्यक होता है। उसका अंकन इस ग्रन्थ में विधिवत् किया गया है। राजा के गुणों पर चर्चा करते हुए तुलसीदास जी ने लिखा है- उसमें प्रजापालक के स्वाभाविक गुण होने चाहिए अच्छा राजा वही है, जो प्रत्येक प्रकार से जनकल्याण और समृद्धि का कार्य करता है। ऐसा राजा प्रजा के भाग्य से ही मिलता है-
माली भानु किसान सम, नीति निपुन नरपाल ।
प्रजा भाग बस होहिंगे, कबहुँ कबहुँ कलिकाल ।।
माली का कार्य है पौधों की काट-छाँट करना, पुराने पत्तों और हानिकारक घासों को काटकर दूर करना और उनकी सुन्दर एवं आवश्यक बाढ़ के लिए रूँधना और पानी से सींचना ।
इसी प्रकार तुलसी ने राजा को कर लेने के सम्बन्ध में एक सुन्दर सुझाव दिया है-.
वरषत, हरषत, लोग सब, करषत लखै न कोइ ।
तुलसी प्रजा सुभाग तें, भूप भानु सो होइ । ।
राजा को कर इतना कम और इस प्रकार से लेना चाहिए कि कर लेते समय किसी को एहसास न हो परन्तु उसके बदले में जब सुख-समृद्धि की वर्षा हो तब सभी देखकर प्रसन्नचित्त हों और कहें कि राजा बड़ा दानी और प्रजापालक है। यह शिक्षा हमें सूर्य से प्राप्त होती है।
गुरु के प्रति श्रद्धाभाव
रामचरित मानस में तुलसी जी ने गुरु के प्रति श्रद्धाभाव की प्रतिष्ठा की है। मानव-जीवन में गुरु का अत्यधिक महत्त्व है। गुरु के अभाव में मनुष्य बिना पतवार की नाव के समान है। गुरु ही हमें ज्ञान प्रदान करता है तथा जन्म-मरण से मुक्ति दिलाने का मार्ग बताता है। गुरु के महत्त्व के विषय में तुलसी जी ने लिखा है-
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ।।
अमिअ मूरिमय चूरन चारु। समन सकल भव रुज परिवारु ।।
तुलसी ने गुरु की महिमा एवं उनके सम्मान पर विशेष ध्यान दिया है। एक बार काकभुशुण्डि जी ईश्वर की वन्दना में तल्लीन थे, और उसी समय उनके गुरु जी वहाँ प्रकट हो गये, किन्तु काक भुशुण्डि जी उनको प्रणाम करना भूल गये। काकभुशुण्डि के इस कृत्य पर शिव जी ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया -
जौ नहिं दण्ड करौ खल तोरा ।
भ्रष्ट होइ स्रुति मारग मोरा ।।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि मानव जीवन के विभिन्न आदर्श मूल्यों का विधिवत् चित्रण रामचरित मानस में किया गया है। इस ग्रन्थ में प्रजा के प्रति राजा का, गुरु के प्रति शिष्य का, माता-पिता के प्रति पुत्र का, भाई के प्रति भाई का, पति के प्रति पत्नी का क्या कर्त्तव्य होना चाहिए, उसका आदर्श रूप वर्णित है। इस प्रकार यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि रामचरित मानस भारतीय जीवन मूल्यों की निर्विवाद कार्यशाला है।
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