सरोज स्मृति कविता की समीक्षा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कविता निराला की पुत्री सरोज की असामयिक मृत्यु पर आधारित है और इसमें पिता के मन के दर्द, विरह और
सरोज स्मृति कविता की समीक्षा | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
सरोज स्मृति कविता महान कवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित एक प्रसिद्ध कविता है। यह कविता निराला की पुत्री सरोज की असामयिक मृत्यु पर आधारित है और इसमें पिता के मन के दर्द, विरह और संघर्ष को बहुत ही मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है। यह कविता छायावादी युग की एक महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है और इसमें निराला की भावनात्मक गहराई और काव्यात्मक कौशल का परिचय मिलता है।
सरोज स्मृति जैसा कि नाम से स्पष्ट है- यह काव्य कविवर निराला द्वारा उनकी पुत्री सरोज की स्मृति में लिखा गया बहुचर्चित 'शोकगीत' है। किसी प्रिय व्यक्ति के निधन पर मन में जो दुखात्मक भाव उत्पन्न होता है उसे शोक कहते हैं। यह एक स्थायीभाव है, काव्य में जिससे करुण रस की निष्पत्ति होती है। भारतीय साहित्य में करुण रस का चित्रण कोई नवीन अथवा अपरिचित घटना नहीं है। भवभूति ने उसको सभी रसों का मूल माना है- "एकोरस: करुणएव" सभी प्राचीन युद्ध काव्यों में प्रसिद्ध योद्धाओं की मृत्यु पर उनके स्वजनों का विलाप चित्रित किया गया है। ऐसे कुछ विलाप तो बड़े प्रसिद्ध हैं। रामायण में दशरथ की मृत्यु पर उनकी रानियों का विलाप, इसी प्रकार रावण की मृत्यु पर मन्दोदरी का विलाप, अभिमन्यु की मृत्यु पर अर्जुन का शोक आदि । किन्तु उपर्युक्त वर्णनों को शोकगीत नहीं कहते। वास्तव में प्राचीन भारतीय महाकाव्यों की वाह्य वर्णन प्रधान शैली में ऐसे गीतों के लिए स्थान न था। गीत में आत्मव्यंजकता का गुण होना अनिवार्य है। नाटकों और महाकाव्यों में भी यद्यपि पात्रों के माध्यम से कवि की निजी अनुभूतियाँ ही व्यक्त होती है, इसीलिए डॉ० नगेन्द्र ने स्थापित किया है कि काव्य में कवि की अनुभूतियों का साधारणीकरण होता है, तथापि किसी ऐतिहासिक, पौराणिक पात्र के माध्यम से अनुभूतियों को व्यक्त करने और आत्मकथा लिखने में बड़ा फर्क है। अंग्रेजी और उर्दू में "शोकगीतों" पुष्कल परम्परा विद्यमान है। अंग्रेजी में उसे 'एलेजी' और उर्दू में 'मर्सिया' कहते हैं। प्राचीन भारतीय काव्यों में वर्णित विलापों, अंग्रेजी के एलेजी और उर्दू के मर्सिया के संयुक्त प्रभाव से हिन्दी में लोकगीतों का उदय हुआ। छायावाद की आत्मकथात्मक शैली ने इसके विकास के लिए युगानुरूप उपयुक्त पृष्ठभूमि प्रदान की
हिन्दी में छायावाद के विकास की चर्चा करते हुए प्रसाद जी ने लिखा है- "कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुन्दरी के वाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिन्दी में छायावाद के नाम से अभिहित किया गया।" तत्कालीन परिस्थितियों में स्वानुभूति की अभिव्यक्ति उद्दाम लालसा को डॉ० नामवर सिंह ने जनतांत्रिक भावना की विजय और मध्यवर्ग की पहली सामाजिक स्वाधीनता कहकर रेखांकित किया है। कवियों की इस सामाजिक स्वाधीनता का प्रथम दर्शन प्रणय के क्षेत्र में हुआ। बाद में जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उसका प्रसार होता गया । निराला छायावाद के कवियों में विशिष्ट थे । प्रसाद की अतिशय गम्भीरता, पन्त की स्त्रैणता और महादेवी की नारी सुलभ अन्तर्मुखता के विपरीत उनमें विद्रोह, आकोश और उग्रता अधिक थी। जिस तरह उनका गुस्सा गजब ढाता था उसी तरह उनका शोक भी। उनकी एक मात्र पुत्री सरोज के निधन पर उनके हृदय की चिरसंचित करुणा मर्यादा के सभी बन्धनों को तोड़कर बह चली। प्रसाद की घनीभूत पीड़ा की स्मृति 'आँसू' बनकर बरसी थी और निराला का शोक स्नेह उपहार बनकर प्रकट हुआ -
यह हिन्दी का स्नेहो पिहार
यह नहीं हार मेरी भास्वर
यह रत्नहार लोकोत्तर वर
जिस प्रकार प्रलय के उपरान्त देवों की निर्बाध विलासिता के सभी चित्र एक-एक करके मनु के नेत्रों के सम्मुख उभरते चले जा रहे थे, उसी प्रकार पुत्री के निधनोपरान्त विगत जीवन की विफलताओं के सभी चित्र एक-एक करके निराला के नेत्रों के सामने घूमने लगे। वस्तुतः कवि का सम्पूर्ण जीवन दुःखों की एक अविरल गाथा है। जैसा कि उसने स्वयं कहा है-
दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज जो नहीं कही
महापुरुषों की आत्मकथा में उनके जीवन की कहानी के साथ समूचे युग की व्यथा का संकेत रहता है। निराला महाकवि थे। उन्होंने तयुगीन चेतना से तादात्म्य स्थापित कर लिया था। उनकी निजी व्यथा में उस युग की व्यथा समाई है। जो समस्या उनकी है, वही हर भले इन्सान की है। जो मूर्ख है, जड़ है जिनकी संवेदनाएँ कुण्ठित हो गयी हैं, उन्हें मौज ही मौज है। जो समझदार है, संवेदनशील है, उनके दुःख का पार नहीं है। कबीरदास ने लिखा था-
सुखिया सब संसार है, खावे अरु सोवे
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे
निराला कम समझदार और हुनरमन्द न थे। क्या वे अपनी बिटिया के इलाज के लिए पैसे को मोहताज रहते ? जैसे समाज में अन्यों ने बेईमानी-शैतानी करके लाख करोड़ जोड़ लिए, उसी तरह वे जोड़ लेते, लेकिन उनका संवेदनशील मन ऐसा करने को तैयार न हुआ। जिस देश में करोड़ों की संख्या में लोगों को पीने का पानी न मिलता हो, जहाँ लोगों के पास दो जून की रोटी का इन्तजाम न हो, जहाँ लोग जाड़े-गर्मी में शरीर की रक्षा के लिए पर्याप्त वस्त्र न जुटा पाते हों, वहाँ किसी को लाखों-करोड़ों जोड़ने का क्या हक है? इसी चिन्तनशीलता ने निराला को कभी धन-संग्रह नहीं करने दिया। काश, वे भी अन्यों की तरह धन-संग्रह करने में निपुण होते तो आज उनकी जवान लड़की इस तरह असमय कालकवलित न होती।
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था
तेरे हित कुछ भी कर न सका।
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित काय लख कर
अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ समर ।
निराला स्वतन्त्र चेता थे। रूढ़ियों और अन्धविश्वासों से उन्हें बड़ी नफरत थी। जो अनुचित है, उसे करना उनके लिए बहुत कठिन होता था। अपनी इस प्रवृत्ति के चलते उन्हें जीवन भर हर स्तर पर संघर्ष करना पड़ा। जिस प्रकार उनका जीवन दुःखों की कहानी है। (दुःख ही जीवन की कथा रही) उसी प्रकार वह संघर्षों की गाथा भी है। वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। उस समय ब्राह्मणों में विवाह सम्बन्धी अनेक रूढ़ियाँ प्रचलित थीं। आज भी है किन्तु उस समय और अधिक थी। कान्यकुब्ज ब्राह्मण इस क्षेत्र में सबसे आगे रहते आये हैं। निराला ने अपनी बिरादरी में भी रूढ़ियों के विरुद्ध कम संघर्ष नहीं किया। बेटी के विवाह के अवसर पर उन्हें जो कुछ झेलना पड़ा था, उसे स्मरण करके कान्यकुब्जों के प्रति उनके मन में नफरत और गुस्सा उमड़ पड़ता था। शायद ही किसी कवि ने अपनी बिरादरी की ऐसी बखिया उधेड़ी हो-
ये कान्यकुब्ज कुल कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद
वे जो यमुना के से कछार पद फटे विवाई के,
उधार खाये के मुख ज्यों,
पिये तेल चमरौधे जूते से सकेल निकले जी लेते,
घोर गन्ध, उन चरणों को
मैं यथा अन्ध बन घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूँ ऐसी नहीं शक्ति ।
जैसा कि कह आये हैं प्राचीनकाल में काव्य में वर्णन की शैली निर्वैयक्तिक होती थी। कवि ऐतिहासिक अथवा पौराणिक पात्रों के माध्यम से अपने विचारों, भावों को व्यक्त करते थे। आधुनिककाल में निर्वैयक्तिकता का स्थान आत्माभिव्यक्ति ने ले लिया। इस तरह काव्य की दो शैलियाँ हुईं- (1) निर्वैयक्तिक शैली, (2) आत्माभिव्यक्ति प्रधान शैली। जिस प्रकार पौराणिक और ऐतिहासिक पात्रों के होते हुए अनुभूति कवि की ही रहती है और इसी प्रकार निर्वैयक्तिकता में भी आत्माभिव्यक्ति का मेल हो जाता है, उसी प्रकार व्यक्तिगत जीवन की सुख-दुःखात्मक अनुभूतियों को व्यक्त करते समय कवि जितना अधिक तटस्थ अथवा निरपेक्ष रहता है, कविता उतनी ही अच्छी बन पड़ती है। सरोज-स्मृति में जहाँ कवि के निजी जीवन की अनुभूतियों के अनेक संश्लिष्ट चित्र देखने को मिलते हैं, वहीं निरपेक्षता और तटस्थता भी कम नहीं है। पुत्री के सौन्दर्य, शृङ्गार और पुष्प सेज का वर्णन करना पिता के लिए कैसे सम्भव होता, यदि वह पूर्णत: तटस्थ और निरपेक्ष न रहता। हिन्दी मैं ही नहीं विश्व साहित्य में इस जोड़ की पंक्तियाँ, कदाचित् न मिलें-
धीरे-धीरे फिर बढ़ा चरण
बाल्य की केलियों का प्राँगण
कर पर कुंज तारुण्य सुघर आइ लावण्य
भार थर-थर काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यों माल कोष नववीणा पर
यही नहीं, की कुल शिक्षा मैंने दी
पुष्प सेज तेरी स्वयं रची।
“सरोज-स्मृति" की भाषा-शैली विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसमें राम की शक्ति पूजा जैसे दीर्घनिकाय समास-बहुल पदों का प्रयोग बिल्कुल नहीं है। दो-दो, तीन-तीन अक्षरों वाले छोटे-छोटे शब्द हैं। शोक की व्यंजना में समास बहुल भाषा अव्यावहारिक होती है, यह बात निराला जैसे सिद्ध सरस्वती के लिए अज्ञात कैसे रही होगी। इसीलिए उन्होंने जान-बूझकर ऐसे पदों का प्रयोग किया। वास्तविकता तो यह है कि सघन अनुभूतियों के उच्छल प्रवाह ने स्वयमेव गीत का रूप धारण कर लिया है। जिस प्रकार आँखों से आँसू अनायास बह चलते हैं, वैसे ही कवि के कंठ से कविता अनायास बह चली है।
इस प्रकार "सरोज स्मृति" कविता निराला की भावनात्मक गहराई और काव्यात्मक प्रतिभा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह कविता न केवल व्यक्तिगत दर्द को व्यक्त करती है, बल्कि मानवीय संवेदनाओं और प्रकृति के साथ गहरे संबंध को भी दर्शाती है। यह कविता हिंदी साहित्य में एक मील का पत्थर मानी जाती है और आज भी पाठकों के हृदय को छूती है।
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