सूरदास की काव्य कला की समीक्षा सूरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। उनके काव्य में हृदय पक्ष की प्रधानता है। उन्होंने अप
सूरदास की काव्य कला की समीक्षा
सूरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। उनके काव्य में हृदय पक्ष की प्रधानता है। उन्होंने अपने पदों में मानवीय भावनाओं को बड़ी गहराई और सुंदरता के साथ व्यक्त किया है।
भक्त शिरोमणि सूरदास हिन्दी साहित्य गगन के सूर्य तथा ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि है। इन्हें भक्तिकाल की सगुण काव्यधारा के कृष्णभक्त कवि के रूप में महारत हासिल है। सूत जी के विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का कथन है- "जयदेव की देववाणी की स्निग्ध पीयूषधारा जो काल की कठोरता में दब गयी थी। अवकाश पाते ही लोकभाषा की सरसता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल कण्ठ से प्रकट हुई और आगे चलकर ब्रज के कुंजों के बीच फैले मुरझाये मनों को सींचने लगी। आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ श्री कृष्ण की प्रेमलीला का गान करने लग जिसमें सबसे ऊँची, सुरीली और मधुर झंकार अन्धे कवि सूरदास की वीणा की थी।"
महाकवि सूरदास जी के लिए इससे श्रेष्ठ काव्यात्मक शक्ति दूसरी नहीं हो सकती सूरदास ने अपनी वीणा का आश्रय लेकर जो कुछ भी गाया उनके स्वर जन्म-जन्मान्तर तक भारतीय लोक-जीवन और संस्कृति में व्याप्त रहेंगे। भावुकता और सहृदयता कवि के अन्तर्मन के भावों, कोमल कल्पनाओं को व्यक्त करती है तथा वाग्विदग्धता और चतुरता काव्य के कलापक्ष तथा बुद्धि पक्ष को व्यक्त करती है। आशय यह है कि भाव पक्ष का सीधा सम्बन्ध हृदय की कोमल भावनाओं से होता है तो कला पक्ष का सम्बन्ध बुद्धि-तन्तुओं से होता । सूरदास जी की सहृदयता एवं भावुकता को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
वात्सल्य वर्णन
महाकवि सूरदास का काव्य सागर वात्सल्य की मनोरम वीथियों से अनुरंजित है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस सन्दर्भ में लिखा है- “जितने विस्तृत एवं विशद रूप में बाल्य जीवन का चित्रण उन्होंने किया है उतने विस्तृत रूप में किसी ने नहीं किया है। वे तो वात्सल्य रस के सम्राट हैं। उन्होंने वात्सल्य के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों का विस्तृत चित्रण किया है।" माता यशोदा श्रीकृष्ण को चोटी बढ़ने का बहाना करके दूध पिलाती हैं तथा कृष्ण जी बार-बार यशोदा जी से प्रश्न कर रहे हैं -
मैया कबहि बढ़ेगी चोटी ?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह आजहुँ है छोटी।
तू तो कहती बल की बेनी ज्यों है हैं लांबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हावत ओछत जैहैं नागिन-सी भुइ लोटी।
कांचो दूध पियावत पचि-पचि, देत न माखन रोटी।।
मातृ-हृदय की कातरता (दीनता), विवशता, क्षोभगर्भित उदासीनता का विचित्र सन्निवेश वियोग वात्सल्य के इस चित्र में देखा जा सकता है -
संदेसो देवकी सों कहियो ।
हौं तो धाय तिहारे सुत की, कृपा करत ही रहियो ।
तुम तो टेव जानति है है, तऊ मोहिं कहि आवै ।
प्रात उठत मेरे लाल लड़ैते, माखन-रोटी भावै।।
श्रीकृष्ण की खान-पान के विषय में माता यशोदा देवकी के पास सन्देश भेजती हैं।
श्रृंगार वर्णन
सूरदास जी हिन्दी साहित्य में शृंगार रस के भी सर्वश्रेष्ठ कवि माने गये हैं। श्रीकृष्ण के चरित्र के स्नेह-सिक्त और मधुर अंश को लेकर उन्होंने जैसी मनोवैज्ञानिक उद्भावनाओं की अभिव्यक्ति की है, वह अत्यन्त सरस और मनमोहक एवं जन-जीवन में सहज प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेने वाली है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने लिखा है- “सूरदास वास्तव में हिन्दी साहित्याकाश के जाज्वल्यमान सूर्य हैं। उनकी रचना शैली इतनी प्रगल्भ एवं काव्यांगपूर्ण है कि आगे होने वाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जान पड़ती हैं।” सूरदास जी ने शृंगार रस के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों का विधिवत् निरूपण किया है। संयोग शृंगार का एक उदाहरण इस प्रकार है -
हमारे अम्बर देहु मुरारी ।
लै सब चोर कदर चढ़ि बैठे, हम जल-माँझ उधारी ।
तट पर बिना बसन क्यौं आवै, लाज लगति है भारी ।
चोली हार तुमहिं कौ दीन्हौं, चीर हमहिं धो डारी ।
तुम यह बात अचम्भौ भाषत, नाँगी आवहु नारी ।
सूर-श्याम कछु छोह करौ जू, सीत गई तनु भारी।।
प्रेम का उत्कृष्टतम और सच्चा स्वरूप वियोग के क्षणों में ही देखने को मिलता है। सूर को शृंगार के संयोग पक्ष की अपेक्षा वियोग के चित्रण में अधिक सफलता मिली है -
निसि दिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति बरषा रितु हम पर, जब तै स्याम सिधारे ।
दृग अंजन न रहत निसिवासर, कर-कपोल भए कारे ।
कंचुकि पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे ।
आँसू सलिल सबै भइ काया पल न जात रिस टारे ।
सूरदास प्रभु यहै परेखौ, गोकुल कहै बिसारे । ।
गोपियों के प्रेम में भावुकता
गोपियों के मन में बड़ा आकर्षण है और वे चाहती हैं कि मर्यादा के बन्धन को मानें, परन्तु वे अत्यन्त विवश हो जाती हैं और श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम की प्रबलता को किसी भी रूप में छिपा नहीं सकती हैं। मोहन की मुरली का निनाद सुनकर गोपियों की जैसी दशा हो जाती है, उसका अत्यन्त भावुकतापूर्ण वर्णन सूरदास ने किया है -
जब मोहन मुरली अधर धरी ।
गृह व्यवहार तजे आरज पथ चलत न संक करी ।
पद-रिपु पद अख्यौ आतुर ज्यों उलटि पलटि उबरी ।
सिव-सुत वाहन आइ पुकार्यो मनचित बुद्धि हरी ।
दुरि गये कीर कपोत मधुप पिक सारंग सुधि बिसरी ।
उडुपति विद्रुम बिम्ब खसान्यौ दामिनी अधिक डरी।
निरखे स्याम पतंग-सुना तट आनन्द उमंग भरी।
सूरदास प्रभु प्रीति परस्पर प्रेम-प्रवाह परी ।।
इस प्रकार के पदों में सूरदास की सहृदयता एवं भावुकता का चरमोत्कर्ष दिखाई पड़ता है ।
सूरदास की वाग्विदग्धता
वाग्वैदग्ध्य का तात्पर्य है चतुरता एवं प्रवीणता से अपनी बात कहना। सूरदास का भ्रमरगीत प्रसंग वाग्विदग्धता से भरा हुआ है। गोपियाँ बड़ी चतुराई से अपनी विरह दशा का निरूपण करती हुई कृष्ण के मन में अपने लिये करुणा जगा रही हैं। वे कहती हैं कि कृष्ण तो ब्रज के रक्षक हैं, उन्होंने अभी तक ब्रज को न जानें कितनी विपत्तियों से बचाया है। अब उनके बिना बादल भी गरज-गरज कर हमें त्रास दे रहे हैं-
ब्रज पर सजि पावस दल आयो।
हम अबला जानि कै चढ़े घन कहौ कौन विधि की जै।
गोपियाँ ज्ञान गरिमा से मण्डित उद्धव को अपने भोले-भाले तर्कों से निरुत्तर कर देती है। वे कहती हैं कि तुम जिस निर्गुण ब्रह्म की इतनी वकालत कर रहे हो, उसके बारे में हमारे प्रश्नों का समाधान करो और हमें बताओ कि-
निर्गुन कौन देस को वासी ?
को है जननि जनक को कहियत कौन नारि को दासी ?
कैसो बरन वेष है कैसो केहिं रस में अभिलाषी ?
वाग्विदग्धता का तात्पर्य कथन-शैली अर्थात् वाणी की चतुराई तथा बात कहने की तर्कसंगत एवं पैनी भाव-भंगिमाओं से है। यही भ्रमरगीत का अनूठापन है। सूर की गोपियाँ अनूठी उक्तियों से उद्धव के वचनों को स्वीकार नहीं करतीं। वे वचन उन्हें अटपटे लगते हैं। वे आश्चर्य मिश्रित स्वर में कह उठती है-
हम सो कहत कौन-की बातें?
सुनु ऊधौ ! हम समझत नाहीं, फिर पूछति हैं ताते।
वियोग श्रृंगार में वाग्विदग्धता
वियोग श्रृंगार के वर्णन में सूर की वाग्विदग्धता अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से निखर उठती है। विशेषकर' भ्रमर गीत' का प्रसंग तो वाग्वैदग्धता से परिपूर्ण है। गोपियाँ बड़ी चतुरता से श्रीकृष्ण के पास सन्देश पर सन्देश भेजती हैं और अपनी दशा का वर्णन करती हुई अपने प्रिय के मन में करुण भावना का उद्घाटन करके साहचर्य का लाभ प्राप्त करना चाहती हैं-
बिनु गोपाल बैरिनि भई कुंजै।
तब वै लता लगति तन सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।
वृथा बहति यमुना खग बोलत, वृथा कमल फूलैं अलि गुंजै।
पवन पानि घनसार संजीवनि, दधि सुत किरन भानु भई भुंजै।
यह ऊधौ कहियो माधव सों, मदन मारि कीन्हों हम लुंजै।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस को, मग जोवत अखियाँ भई गुंजै।
उद्धव जब कृष्ण की भेजी हुई पाती गोपियों को देते हैं, तो गोपियों के आनन्द की सीमा नहीं रहती। बार-बार वह पाती को देखती और उसे छाती से लगाती हैं। इस मानसिक दशा का सूर ने बहुत ही स्वाभाविक एवं मर्मस्पर्शी चित्रण किया है -
निरखति अंक श्याम सुन्दर के बारहि बार लगावति छाती ।
लोचन जल कागद मसि मिलि कै, है गई स्याम, स्याम जू की पाती ।।
भ्रमरगीत में वाग्विदग्धता
भ्रमरगीत में गोपी और उद्धव संवाद में वाग्विदग्धता का विकसित रूप दिखाई देता है। ज्ञान-गरिमा से मण्डित उद्धव को श्रीकृष्ण गोकुल में इसलिए भेजते हैं कि वह गोपियों को निराकार की ओर उन्मुख कर सकें। इस अवसर पर गोपियों के प्रत्युत्तर देखने और पढ़ने के योग्य हैं। वे उद्धव को विचित्र व्यापारी मानती हैं जो कुशल के साथ-साथ निपट स्वार्थी भी है। वह यह नहीं समझता कि कोई फटकन लेकर सोना कैसे देगा ? गोपियाँ अपूर्व व्यंजना के साथ कहती हैं-
आयौ घोष बड़ौ व्यापारी ।
लादि खेप गुन ज्ञान-योग की ब्रज में आय उतारी।
फाटक दै कर हाटक मांगत भोरै निपट सु धारी।
सूर के भ्रमरगीत में वाग्विदग्धता के अनेक रूप मिल जाते हैं। गोपियाँ उद्धव पर विश्वास नहीं कर पात और निर्गुण की बात एक भ्रम, एक धोखा समझती हुई कहती हैं-
ऊधौ हम अजान मति भोरी ।
कंचन को मृग कौन देख्यौ कौने बांधी डोरी ।
सूर ने जो दृष्टान्त पद्धति का प्रयोग किया है, उससे वाग्विदग्धता में और भी प्रखरता आ गयी है। गोपियाँ बड़ी चतुराई से उद्धव की बोलती बन्द कर देती हैं। वे तो अपनी विरह जन्य प्रगल्भता में ही तिरोहित हैं। उन्हें कुछ नहीं चाहिए-
अटपटि बात तिहारी ऊधौ, सुनै सो ऐसी को है?
हम अहीर अबला सठ, मधुकर! नकटी पहिरे बेसरि ।
मुड़ली पाटी पारन चाहै, कोढ़ी अंगहि केसरि ।
इसी प्रकार सर्वत्र ही भ्रमरगीत के अन्तर्गत वाग्वैदग्धता का सुखद प्रभाव परिलक्षित होता है। इसी भावना को हाजिर-जवाबी, सभाचातुरी कहा जाता है। सामने वाले व्यक्ति को ऐसा खरा और चुभता हुआ उत्तर दिया जाये कि उसकी बोलती बन्द हो जाये- इसी का नाम वाग्विदग्धता है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि सूर में जितनी सहृदयता एवं भावुकता है उतनी ही वाग्विदग्धता भी है। उनका काव्य अनेक उक्तियों से सम्पन्न है जिसके कारण उसमें माधुर्य का समावेश तो हुआ ही है, साथ ही उसकी प्रभावोत्पादकता भी बढ़ गयी है। सूरदास की काव्य कला हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है। उनके पदों में मानवीय भावनाओं की गहराई और विविधता का जो चित्रण मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उनकी भाषा, शैली, रस, भाव, अलंकार, छंद, और प्रतीक सभी उनकी काव्य कला को उत्कृष्टता प्रदान करते हैं।
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