राजगद्दियों में नए राजतिलक से पहले कुर्सियां ऐसे ही नहीं छोड़ी जातीं… उन्हें त्यागपत्र की धौंस जमाकर छोड़ा जाता है। जिस कुर्सी पर जमकर लूट-खसोट का नंग
त्यागपत्र की ताकत
वो त्यागपत्र अपनी जेब में रखते हैं... ये क्या कम बात है! कौन इस राजनीति के कीचड़ में आज तक गंदा नहीं हुआ है? लेकिन उन्हें देखो—आज भी अपनी जनता की आशाओं के खून से रंगे हाथ और भ्रष्टाचार की काली कमाई से काले हुए हाथ तुरंत त्यागपत्र के साबुन से धो लेते हैं। उन्हें कुर्सी से कोई लगाव नहीं... जब चाहे, जी चाहे, रात के 2 बजे भी त्यागपत्र अपनी जेब से निकालकर जनता को दिखा सकते हैं। आलाकमान को फोन करके त्यागपत्र देने की धमकी दे सकते हैं... और अगर चुनाव नज़दीक हो, तो वे सच में त्यागपत्र दे भी सकते हैं...!
त्याग का अपना जलवा होता है। जो त्याग करता है, वो त्यागी कहलाता है। त्याग किसी नेता जी और अफसर का वैसे दिखता नहीं, इसलिए उसे पत्र रूप में टाइप कराकर जेब में रखना पड़ता है। आदर्श भी आजकल पहुँच वाले लोगों की जेब में ही शोभा देते हैं। अब किसी छोटे-मोटे सरकारी नौकर के त्यागपत्र की क्या बिसात! उनके द्वारा त्यागपत्र दिए नहीं जाते... उन्हें नौकरी से धक्का मारकर निकाला जाता है। त्याग करना तो बड़े लोगों का काम है!
त्याग आपको अपने आदर्शों को ताक पर रखकर भी टिके रहने की सुविधा दे जाता है। त्याग आपकी डूबती राजनीतिक नैया के लिए पतवार का काम करता है। त्यागपत्र वो वॉशिंग मशीन है, जिसमें आपके काले कारनामों की कालिख तुरंत धुल जाती है। त्यागपत्र के रंडी रोने से निकला नेता जनता की नज़रों में देवता बन जाता है—उसके सौ खून माफ़!
हमारे एक दोस्त हैं—संस्थाजीवी दोस्त... पदजीवी भी हैं। पद प्राप्ति हेतु अपने पाँव एक संस्था से दूसरी संस्था में घुमाते रहते हैं। वो भी त्यागपत्र तैयार रखते हैं... त्यागपत्र भी इस अंदाज़ में देते हैं कि लेने वाले की हिम्मत ही जवाब दे जाए! लेने वाला थर-थर काँपने लगता है। उनका कहना होता है— "हम त्यागपत्र दे रहे हैं, आप लेकर तो दिखाइए!"
त्यागपत्र देने से पहले वो सुनिश्चित कर लेते हैं कि कहीं उनका त्यागपत्र असल में स्वीकार न कर लिया जाए! और जानकार सूत्रों से खबर आती है कि कोई वर्मा या शर्मा का बच्चा कुर्सी पर नज़र टिकाए बैठा है, तो वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में पहले दूसरी संस्था में बात करके रखते हैं।
रिश्वतखोर अधिकारी तो इस त्यागपत्र ब्रह्मास्त्र के सुरक्षा-कवच में बेखौफ मलाई चाटते हैं। जैसे ही कोई जाँच कमिटी बैठेगी, त्यागपत्र दे देंगे! कैबिनेट में किसे मंत्री बनाना है और किसे नहीं, यह इसी पर निर्भर करता है कि पिछले रिकॉर्ड के अनुसार उसने ज़रूरत पड़ने पर त्यागपत्र की पेशकश करने में कोई कोताही तो नहीं बरती है।
त्यागपत्र जेब में रखना, जनाब, एक कला है। यह कोई मामूली कागज़ का टुकड़ा नहीं, बल्कि राजनीतिक ज़िंदगी की बीमा पॉलिसी है। इसे धारण करने वाला हर राजनीतिज्ञ एक जादूगर है, शतरंज का खिलाड़ी, जिसके पास हमेशा एक आखिरी चाल होती है।
जब जनता के सवालों की बौछार तेज़ हो, जब घोटालों की गाथाएँ सुर्खियाँ बनने लगें, तब यह त्यागपत्र जेब से निकलकर पिस्तौल की तरह जनता की कनपटी पर आ धमकता है। इसे दिखाते ही सारे गिले-शिकवे धुल जाने का अहसास होता है..."तुम त्यागपत्र नहीं रे बाबा, माफ़ीनामा जैसा कुछ हो!"
त्यागपत्र बने हैं पद पर बने रहने के लिए… त्यागपत्र बने हैं पद की गरिमा को बनाए रखने के लिए…त्यागपत्र वर्तमान परिस्थितियों के चुंगल से निकलकर भविष्य की नींव भी मजबूत बनाता है। निकम्मेपन और निठल्लेपन की नींव… जैसे कोई पत्नी रूठकर वापस मनाई जाए, तो प्यार का ग्राफ बढ़ता है… है कि नहीं? बस ऐसे ही, जब कोई व्यक्ति पद छोड़कर दोबारा पद ग्रहण करता है, तो उसके हितैषी उस पर और अधिक जान छिड़कने लगते हैं। त्यागपत्र की भट्टी में पककर कुंद, कुंठित, कुत्सित आदमी भी खरा सोना नजर आने लगता है। बेचारा… जैसे जेल से छूटकर आया कोई अपराधी या डाकू अब संत-सा नजर आने लगा हो! अब उसकी मनमर्जी और घोटालों को सब नजरअंदाज करने लगते हैं।
त्यागपत्र कब देना है और कब नहीं… यह भी बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है। जब कोई मांगे, तब तो हरगिज नहीं देना है! स्वेच्छा से त्यागपत्र की पेशकश, त्यागपत्र के स्वीकृत होने की संभावनाओं को कम कर देती है। त्यागपत्र देने की पूर्व संध्या पर अपने खेमे के चाटुकारों और चमचों को तैयार करना पड़ता है। उन्हें बताना पड़ता है कि—"आप सभी को शोर मचाना है, नारे लगाने हैं, आंसू बहाने हैं… जैसे कि तुम्हारा नेता शहीद होने जा रहा हो!" इसे विरोधियों का षड्यंत्र बताना है…!
अपने आलाकमानों से बात करके, किसी मनहूस मुहूर्त में यदि त्यागपत्र देना भी पड़ जाए, तो कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी कंटिंजेंसी प्लान के तहत पहले से ढूंढ लेना बुद्धिमानी का काम है।रही बात कुर्सी की, तो देखिए… सबसे पहले परिवार का कोई सदस्य तैयार कर लीजिए जो उस पर फिट हो जाए! क्योंकि सत्ता की कुर्सियां बनी ही ऐसी हैं कि सत्ताधारी उस पर बैठकर सबसे पहले इसे अपने परिवार के उत्तराधिकारी के लिए सुरक्षित करने का प्रण ले लेता है। बाप हटा, तो बेटा बैठा देंगे, बेटा हटा, तो बहू! राजनीति हर किसी के बूते की बात नहीं… सीमित विकल्प हैं जी, क्या करें!
राजगद्दियों में नए राजतिलक से पहले कुर्सियां ऐसे ही नहीं छोड़ी जातीं… उन्हें त्यागपत्र की धौंस जमाकर छोड़ा जाता है। जिस कुर्सी पर जमकर लूट-खसोट का नंगा नाच किया जाता है, अंत में उसी पर त्यागपत्र की लंबी लात जमाई जाती है। फिर जनता को बताया जाता है—"देखो, इन कुर्सियों की फितरत ही यही है… लात खाने की! हमने तो खा लिए अपने सौ चूहे… अब हम तो चले हज को!"
जाते-जाते, खाकसार का यह दो कौड़ी का शेर तो सुनते जाइए—जिस कुर्सी ने खिलाई दावत-ए-खास,उस पर अंत में जमाई लात!
- डॉ मुकेश गर्ग
गर्ग हॉस्पिटल ,स्टेशन रोड गंगापुर सिटी राजस्थान पिन कॉड ३२२२०१
पेशा: अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि: कविताएं, संस्मरण, लेख, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
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