बहुभाषिक समाज में अनुवाद की उपयोगिता बहुभाषिक समाज में अनुवाद की उपयोगिता अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह न केवल भाषाई बाधाओं को दूर करता है बल्कि सांस्कृति
बहुभाषिक समाज में अनुवाद की उपयोगिता
बहुभाषिक समाज में अनुवाद की उपयोगिता अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह न केवल भाषाई बाधाओं को दूर करता है बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक संबंधों को भी मजबूत करता है। अनुवाद के माध्यम से विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के बीच संवाद स्थापित होता है, जो समाज में सहयोग और समझ को बढ़ावा देता है।
बहुभाषिक समाज का अर्थ
बहुभाषिक समाज का अर्थ है ऐसा समाज जिसमें एक से अधिक भाषाएँ प्रचलित हों यानी जहाँ के लोग एक से अधिक भाषाएँ बोलते हों। यहाँ एक से अधिक भाषाएँ बोलने का अर्थ कई तरह से लिया जा सकता है -
- वह समाज जिसमें लोगों को एक से अधिक भाषाएँ आती हों,
- वह समाज जहाँ लोग भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते हों, तथा
- वह समाज जहाँ विभिन्न प्रयोजनमूलक कार्यों, शिक्षा तथा साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ प्रयुक्त होती हों। वैसे ही अधिकांश समाजों अथवा देशों में एक से अधिक भाषाओं को बोलने वाले मिलते हैं लेकिन बहुभाषिकता को लेकर सब देशों की स्थिति समान नहीं है।
ऊपर बताई गई तीन स्थितियों में से पहली दो अधिकांश बहुभाषी समाजों से मिलती हैं। लेकिन तीसरी स्थिति कुछ समाजों में ही मिलती है।
शुरू से मनुष्य का सहज स्वभाव रहा है कि वह दूसरे देशों, समाजों, भाषाओं के सम्पर्क में आता रहा है। उसने युद्ध मैत्री, व्यापार आदि के सम्बन्ध बनाए हैं लेकिन आज विज्ञान की प्रगति के साथ दुनिया बहुत छोटी हो गई है और प्रवास की प्रवृत्ति काफी बढ़ी है। अधिकांश देशों में दूसरे देशों के लोग जाकर रहने लगे हैं। उनकी भाषाएँ भिन्न-भिन्न हैं लेकिन कार्यकलाप की प्रमुख भाषा उन देशों की अपनी भाषा या अंग्रेजी है। इंग्लैण्ड, अमेरिका, आस्ट्रेलिया में रहने वालों प्रवासियों के घर के भीतर की भाषा कोई भी हो कार्य और व्यवहार की भाषा अंग्रेजी ही है। यहाँ के काफी लोग भले ही एक से अधिक भाषाएँ जानते हों लेकिन उन्हें उस अर्थ में बहुभाषी देश नहीं कहा जा सकता जिस अर्थ में भारत एक बहुभाषी देश है।
भारतीय समाज में बहुभाषिकता का स्वरूप
भारत एक बहुभाषिक समाज है। यहाँ की बहुभाषिकता की विशेषता यह है कि इसके ऐतिहासिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आयाम काफी विस्तृत और गहन हैं। यहाँ प्राचीनकाल से भाषागत विविधता रही हैं। संस्कृत काल में भी लोकभाषाएँ काफी जीवन्त और समृद्ध थीं। प्राकृतों का व्यापक प्रचलन था । आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास के साथ तो भारतीय समाज की भाषिक विविधता ने रंग-बिरंगे फूलों के बगीचे का रूप ले लिया। आज यहाँ 22 प्रमुख भाषाएँ हैं जिनके पास प्रचुर मात्रा में साहित्य मौजूद है। इनमें से 18 ऐसी भाषाएँ हैं जिनका जीवन के विविध महत्त्वपूर्ण कार्यकलापों में प्रयोग होता है। इनके द्वारा शिक्षा की व्यवस्था है।
इस तरह भारतीय समाज एक ऐसा बहुभाषिक समाज है, जहाँ प्राचीनकाल से ही समाज में बहुत सारी भाषाओं का उपयोग होता रहा है। अथर्ववेद में कहा गया है कि यहाँ बहुत सारी भाषाएँ बोलने वाले, नाना धर्मो का पालन करने वाले बहुत-से लोग रहते हैं। बहुभाषिकता भारतीय परिवेश का एक सर्वव्यापक तत्व हैं और देश के जीवन को प्रभावित करता है। आमतौर से विकासमान देशों की बहुभाषिकता को विकसित देशों के नियमानुसार एक समस्या के रूप में देखा जाता है। यह कहा जाता है कि बहुत सारी भाषाएँ, बहुत से धर्म, जातियाँ देश की एकता को तोड़ती हैं मगर यह धारणा भ्रामक है। भाषिक या धार्मिक या जातीय विविधता सम्पूर्णता के अलग-अलग हिस्सों को महत्त्व देती है और प्रत्येक मनुष्य के महत्व को प्रमाणित करती है। इसके विपरीत कोई भी अखण्डित संरचना मनुष्य के जीवन को हिस्सों में बाँट कर उन्हें एक रूप में देखना है और जीवन की समूची एकता के, ज्ञान को विखण्डित करना है। विविधता के द्वारा ही प्रत्येक हिस्से की सहायता से निर्मित एकता की सही पहचान होती है। इसीलिए भारतीय साहित्य को केवल संस्कृतरण या पाश्चात्यकरण के द्वारा समझा नहीं जा सकता है और इस तरह की कोशिश हमारे सांस्कृतिक अन्धेपन को ही प्रमाणित करती हैं। भारतीय साहित्य विभिन्न भारतीय भाषाओं की सहायता से निर्मित हुआ है और प्रत्येक भाषा का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है। समाज में जिस तरह बहुत-सी भाषाएँ बोली जाती हैं उसी तरह हमारे लेखक भी अपनी रचनाओं में एक से अधिक भाषाओं का उपयोग करते हैं। कवि कालिदास ने अपनी नाटक 'शन्कुतला' में संस्कृत के अतिरिक्त शौरसेनी, महाराष्ट्री तथा मगधी प्राकृत का प्रयोग किया है। मैथिली कवि विद्यापति ने अवहट्ट, संस्कृत भाषा मैथिली में अपनी रचनाएँ की हैं। गुरु ग्रन्थ साहिब एक बहुभाषिक कृति है। आधुनिक युग में प्रेमचन्द की उपेन्द्रनाथ अश्क ने हिन्दी और उर्दू में रचनाएँ की हैं।
भारत के मुख्य भाषा परिवार
भारत में चार मुख्य भाषा परिवार है- आस्ट्रिक, द्रविड, चीनी-तिब्बती, तथा भारोपीय भाषा परिवार। कोल, मुंडा, संथाल आदि भाषाएँ आस्ट्रिक परिवार की हैं और भारत की सबसे प्राचीन भाषाएँ हैं। तमिल, तेलगु, मलयालम तथा कन्नड़ द्रविड भाषा-परिवार की भाषाएँ हैं। मिजो तथा मणिपुरी चीनी-तिब्बती भाषा परिवार की हैं। कोंकणी, मराठी, गुजराती, संस्कृत, हिन्दी, पंजाबी, उर्दू, बांग्ला, असमिया, उड़िया भारोपीय भाषा परिवार की भाषाएँ हैं। इनमें से हिन्दी एक छतरी भाषा है क्योंकि हिन्दी कोई एक भाषा नहीं हैं वह अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि कई भाषाओं/बोलियों को लेकर अपने स्वरूप को प्रमाणित करती है।
भारतीय समाज में एक व्यक्ति के लिए एक से अधिक भाषाएँ बोलना स्वाभाविक है इसीलिए द्विभाषिकता या त्रिभाषिकता को भारतीय समाज ने स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लिया है। सांस्कृतिक बहुलता तथा बहुभाषिकता को ध्यान में रखकर ही पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भाषिक राज्यों के आधार पर भारत का एक नया राजनैतिक मानचित्र खींचा था। पंडित नेहरू ने अपने उन आलोचकों को कड़ा जवाब दिया था जिन्होंने यह कहना शुरू किया कि भाषिक प्रदेशों के कारण अन्तः भाषिक तथा अन्तर्राज्यीय पारस्परिक कार्यकलाप, आवागमन असम्भव हो जाएँगे और इस तरह की भाषागत राजनैतिक सीमाएँ राज्यों के आपसी भाषिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों को सीमित कर देंगे। मगर स्थिति ऐसी नहीं है।
पं. नेहरू के अनुसार देश की बहुभाषिक स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं और हमारे सांस्कृतिक स्वास्थ्य के लिए उपयोगी भी। अनेक भाषाओं का विकास एकता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। देश की सांस्कृतिक बहुलता के आधार पर प्रत्येक भाषा को महत्व मिलने पर विविधता की बात की जाती है उतनी अधिक यहाँ एकता बनी रहती है और जितनी ज्यादा एकता की बात होती है उतनी अधिक विविधता के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता है। तुलनात्मक साहित्य एक अनुशासन के रूप में अब विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा है जहाँ एक से अधिक भाषाओं के साहित्य को पाठयक्रम में स्थान मिला हुआ है। प्रत्येक राज्य में अपनी-अपनी भारतीय भाषाओं को महत्व देने वाले राजनेता उभर कर सामने आए हैं।
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