भक्ति काल का उद्भव और विकास Bhaktikal Ka Udbhav Aur Vikas भक्ति काल का उद्भव और विकास भारतीय साहित्य और संस्कृति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण मान
भक्ति काल का उद्भव और विकास Bhaktikal Ka Udbhav Aur Vikas
भक्ति काल का उद्भव और विकास भारतीय साहित्य और संस्कृति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण माना जाता है। यह कालखंड मुख्य रूप से मध्यकालीन भारत में फला-फूला और इसका प्रभाव समाज, धर्म और साहित्य पर गहराई से पड़ा। भक्ति आंदोलन का उदय एक ऐसे समय में हुआ जब समाज में जातिगत भेदभाव, धार्मिक कर्मकांड और अंधविश्वासों का बोलबाला था। इस आंदोलन ने भक्ति के माध्यम से ईश्वर तक सीधी पहुँच का संदेश दिया और सामाजिक समानता, प्रेम और सद्भाव पर बल दिया।
उत्पन्ना द्राविड़े साहँ वृद्धि कर्नाटके गता ।
क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्र गुर्जर जीर्णतागता ॥
तत्र घोरे कलेयोगात् पाखण्डे खंडिता वा ।
दुर्बलाएँ, चिरंयाता पुत्राभ्यां सह मंदिताम ॥
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनैव सरूपिणी ।
जातां युवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु सांप्रतम् ॥ - श्रीमद्भागवत
उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि भक्ति का उदय द्राविड़ देश (दक्षिण) में हुआ। उस समय बौद्धों व जैनों की संस्कृति का प्रचार-प्रसार था। शोधों से यह प्रमाणित हो गया है कि अलवारों और नयनारों ने भक्ति का प्रयोग दक्षिण भारत से बौद्धों व जैनों को भगाने के लिए किया था। इसलिए भक्ति को सीधे इस्लामी संस्कृति से न जोड़कर बौद्धों की संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में देखना अधिक ठीक होगा; क्योंकि दक्षिण भारत से भक्ति की शुरुआत होती है और वहाँ से यह रामानन्द के द्वारा उत्तर भारत में आती है।
हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक विघटन की प्रक्रिया शुरू होने के बावजूद उत्तर व दक्षिण भारत के सम्बन्ध नहीं टूटे। हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में शक्तिशाली विस्तृत साम्राज्यों जैसे- गुर्जर प्रतिहारों, राष्ट्रकूटों और पालों का उदय हुआ, जो कन्नौज पर शासन करने या गंगा की घाटी के ऊपरी भाग और उससे लगे मालवा जैसे क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए एक-दूसरे से लड़ते थे। सांस्कृतिक क्षेत्र में दक्षिण और उत्तर के मध्य निकट सम्बन्ध से इस बात से पता लगता है कि भारत में एक विचारधारा को स्थापित करने के लिए शास्त्रीय दिग्विजय अर्थात् देश के विभिन्न भागों की यात्रा या शास्त्रार्थ करना जरूरी था। ..इसी वजह से शंकराचार्य को 32 वर्ष के जीवन की छोटी अवधि में एक उल्लसित दिग्विजय और देश के विभिन्न भागों में मठों की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। शंकर का अनुसरण अन्य लोगों जैसे रामानुज, निम्बार्क आदि ने भी किया। उत्तर भारत से भी बहुत से नाथपंथी साधुओं को दक्षिण और पश्चिम की यात्रा करने और वहाँ अपने केन्द्र स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है।
उत्तर व दक्षिण के सन्तों-महात्माओं के उक्त कार्यों के बावजूद जार्ज ग्रियर्सन भक्ति-आन्दोलन को ईसाईयत से उद्भूत मानते हैं। लेकिन आलवारों की रचनाएँ साबित करती हैं कि भक्ति को यह रूप ईसाईयत की देन न होकर भारतीय जमीन की अपनी उपज है। भक्ति के उदय के सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि, “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके मन्दिर गिराये जाते थे, देव-मूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ नहीं कर सकते थे। ऐसी स्थिति में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न तो लज्जित हुए बिना सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतन्त्र राज्य भी नहीं रह गये। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के नीचे हिन्दू जनता पर उदासी छायी रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान् की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था।"
शुक्लजी की उस मान्यता का कि उत्तर में भक्तिकाल और भक्तिकाव्य का उदय इस्लामी आक्रमण से पराभूत और हताश हिन्दू जाति के पराजित मनोभाव का परिणाम है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कड़ा प्रतिवाद किया। उन्होंने लिखा- "मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस हिन्दी साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।” अपने इस कथन को कुछ स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि, "इन सबका अर्थ यह नहीं कि मुसलमानी धर्म का कोई प्रभाव साहित्य पर नहीं पड़ा है।" यानि कि चार आने का प्रभाव वह भी मानते हैं; किन्तु उन्होंने कहा कि "प्रभाव को प्रभाव के रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिए, प्रतिक्रिया के रूप में नहीं।" भक्ति के उदय को आचार्य द्विवेदी ने किसी प्रकार की प्रतिक्रिया न मानकर भारतीय चिन्ता और भारतीय धर्म चेतना की स्वाभाविक परिणति के रूप में देखा। उसे उन्होंने इनके लोक की ओर झुकने का परिणाम माना। इस बारे मैं उनका कथन है कि- "भारतीय पाण्डित्य ईसा की एक शताब्दी बाद आचार-विचार और भाषा के क्षेत्रों में स्वभावतः ही लोक की ओर झुक गया था। यदि अगली शताब्दियों में भारतीय इतिहास की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण घटना अर्थात् इस्लाम का प्रमुख विस्तार न भी घटी होती तो भी वह इसी रास्ते जाता। उसके भीतर की शक्ति उसे इसी स्वाभाविक विकास की ओर ठेले लिए जा रही थी।"
भक्ति-आन्दोलन को मध्यकाल के एक जन-आन्दोलन के रूप में माना जाता है, क्योंकि इस आन्दोलन के मंच पर शूद्र, निम्न वर्ग तथा स्त्रियों ने पहली बार निश्चित और निर्भीक होकर धर्म, वर्ण, जाति और सम्प्रदायगत बन्धनों तथा चहारदीवारियों को तोड़कर मानव-संस्कृति और मानवीयता का नारा बुलन्द किया। भक्ति-आन्दोलन की यह धारा कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि अपने समय की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों की देन थी।
शताब्दियों पहले दक्षिण में सर्वप्रथम आलवारों एवं नयनारों ने चले आते हुए शास्त्र सम्मत विधानों को तोड़ते हुए शिव और विष्णु भक्ति का रास्ता सबके सामने सुलभ किया। बाद में रामानुज और उनकी शिष्य-परम्परा के रामानन्द ने एक कदम और आगे बढ़कर परम्परागत वैष्णव-धर्म की व्यवस्था पर चोट करते हुए भक्ति का अधिकारी न केवल शूद्रों और चांडालों को माना, अपितु मुसलमानों को भी अपनी शिष्य-परम्परा में शामिल किया और सामान्य मानव-धर्म के लिए रास्ता साफ कर दिया। अर्थात् शूद्रों, अन्त्यजों और मुसलमानों की भीड़ लगभग भक्ति के बहाव में कूद पड़ी, जो अब तक के सांस्कृतिक जीवन की मिसाल है। इस आन्दोलन को यूरोप के धर्म-सुधार आन्दोलन के समानान्तर लोक-जागरण के नाम से भी अभिहित किया गया है।
'भक्ति द्राविड़ी ऊपजी लाए रामानन्द' को आधार रूप में ग्रहण कर डॉ. सत्येन्द्र भक्ति का उदय दक्षिण प्रदेश में ही मानते हैं- "आर्यों ने भक्ति का भाव दक्षिण से प्राप्त किया था।" भक्ति के उदय के सम्बन्ध में यूरोपीय विद्वानों की सम्मतियाँ नितान्त हास्यास्पद हैं। उनमें ईसाई धर्म की गरिमा का अहंकार है। दक्षिण भारत में बारह अलवार संत हुए हैं। उन्हीं में अंदाल नाम की एक भक्तिन भी हुई है। इन्होंने शंकर के अद्वैतवाद की अवहेलना की थी। भक्ति-आन्दोलन के प्रमुख कर्णधार यही अलवार सन्त थे। नाथमुनि ने वैष्णव धर्म के प्रचार कार्य में विशेष रुचि ली थी। इसी परम्परा में रामानुजाचार्य हुए, जिन्होंने विशिष्टाद्वैत दर्शन को जन्म दिया। इनके अनन्तर रामानन्द हुए, जिन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र का दिव्य रूप प्रतिष्ठित किया। गोस्वामी तुलसीदास के काव्य के देवता यही मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र हैं।
भक्ति आन्दोलन के सन्दर्भ में तीन अन्य आचार्यों का कृतित्व भी विचारणीय है।वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैतवाद, निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैतवाद और मध्वाचार्य ने द्वैतवाद का सिद्धान्त प्रतिष्ठित किया। वल्लभाचार्य ने बालक कृष्ण को इष्टदेव बनाया। द्वैतवाद में विष्णु और लक्ष्मी उपास्य हैं। निम्बार्क सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की भक्ति प्रमुख है। सूरदास ने श्रृंगार की कल्पना राधावल्लभ सम्प्रदाय से ली थी और वात्सल्य की कल्पना वल्लभाचार्य से। महाराष्ट्र के भक्त नामदेव ने निराकार ब्रह्म की उपासना का मार्ग हिन्दू और मुसलमान जनता के सम्मुख रखा। इन्हीं की निर्गुण उपासना की परम्परा में कबीर, नानक, दादूदयाल आदि सन्त हुए हैं। सूफी मुसलमानों ने अपनी कविता में हिन्दू-जीवन का स्पर्श बहुत गहराई से किया है। इन्होंने मुख्यत: प्रेम का संदेश दिया। इन कवियों में मलिक मुहम्मद जायसी सर्वश्रेष्ठ हैं। इस प्रकार भक्ति की प्रबल भावधारा ने जनमन की निराशा और क्षोभ के सम्पूर्ण विकार को धोकर स्वच्छ कर दिया।
भक्ति आंदोलन ने न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। इसने निम्न जातियों और स्त्रियों को धार्मिक और सामाजिक स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मीराबाई और अंडाल जैसी महिला संतों ने समाज में स्त्रियों की स्थिति को मजबूत किया। इस प्रकार, भक्ति काल का उद्भव और विकास भारतीय समाज के लिए एक नए युग की शुरुआत थी, जिसने प्रेम, समानता और भक्ति के मूल्यों को स्थापित किया।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कह सकते हैं कि भक्ति-आन्दोलन ने यद्यपि तत्कालीन अनेकानेक परिस्थितियों से भाव-प्रभाव ग्रहण किया, लेकिन उसका मूल उद्गम स्थल दक्षिण भारत है। वहाँ से इसे उत्तर भारत में ले आने का श्रेय रामानन्द को दिया जाता है -
"भक्ति द्राविड़ी ऊपजी, लाए रामानन्द ।
प्रकट करी कबीर ने, सात दीप नौ खण्ड ॥"
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