मानस सागर मंथन बात महाकुंभ की प्रयाग में संगम क्षेत्र पर महा कुम्भ मेला पिछले कुछ समय लगातार सुर्ख़ियो में रहा। सोच रहा कि ऐसा क्या खास था इसमें? ऐसा
मानस सागर मंथन
बात महाकुंभ की
प्रयाग में संगम क्षेत्र पर महा कुम्भ मेला पिछले कुछ समय लगातार सुर्ख़ियो में रहा। सोच रहा कि ऐसा क्या खास था इसमें? ऐसा ग्रहीय संयोग एक सौ चवालीस साल बाद बनता है और हर किसी के जीवन काल में यह अवसर आ पाना संभव नहीं। इसीलिए तो इसे महाकुंभ की संज्ञा दी गई है। वैसे कुम्भ मेला 12 साल बाद आयोजित होता है और एक औसत इंसान के जीवन में ऐसे कई अवसर आ सकते है। लेकिन 144 साल बाद वाली बात कुछ अलग है। मैं स्वयं उन भाग्यशाली इन्सानों में हूँ जिनके जीवन काल में यह अवसर आया और शायद इसलिए एक बड़ी आबादी ने यह अवसर गंवाना उचित नहीं समझा। यही कारण रहा होगा जिसने इतनी बड़ी संख्या में लोगों को वहाँ आने के लिये प्रेरित किया। उपस्थित जनसमूह के बारे में संख्यात्मक अतिशयोक्ति के बिना भी यह मेला विश्व का सबसे बड़ा मेला माना जाता है। भगदड़ जैसे कई हादसो एवं सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर दुर्भावनापूर्ण प्रसारण जैसी घटनाओं को नकारने या छिपाने जैसी बातों ने कई सवाल मेला प्रबंधन के समक्ष प्रस्तुत किये है जिनके तर्कपूर्ण एवं न्यायोचित उत्तर शायद ही मिल सके। इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बावजूद यह आयोजन महत्वपूर्ण था।
धार्मिक भावना के इतर भी लोग इस अभूतपूर्व मेले में भागीदार होने के इच्छुक रहे यह सोचकर कि ऐसा करने पर वे एक ऐतिहासिक क्षण के गवाह हो जायेगे। एक ऐतिहासिक पल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का लोभ संवरण करना वाकई मुश्किल था। कुछ ऐसे भी थे जो संभवतः स्नान हेतु नहीं अपितु मेले की विराटता एवं भव्यता के प्रत्यक्षदर्शी होना चाहते थे।
जिस बात पर अपने विचार साझा करने का प्रयास मैं कर रहा हूँ वह एक परंपरा के उद्भव, विकास, राष्ट्रीय महत्व और उत्तरोत्तर परिवर्तनों से है। आज से करीब 1400 साल पहले राजा हर्षवर्द्धन [1] के समय में संगम स्थल पर माघ मेले का आयोजन एक ठोस आकार लेने लगा था और मूल भावना में स्नान के साथ और कुछ भी शामिल था। चीनी यात्री हवेन त्सांग [2] ने इस मेले एवं राजा हर्ष की मेले में भागीदारी का उल्लेख किया है। संभवतः यह पहला ऐतिहासिक दस्तावेज़ है मेले का, वरना ऐतिहासिक जानकारियों पर हमारा आग्रह लगभग नगण्य रहा है।
उस काल में ऐसे आयोजन कुछ अंतराल के बाद जरूरी थे विचारों एवं सूचनाओं के आदान-प्रदान हेतु, क्योंकि तब न प्रेस था और न मीडिया। धार्मिक, सामाजिक पहलुओ के साथ कृषि, शिक्षा और अन्य बातों पर भी चर्चा होती रहनी जरूरी थी। उस समय की परिस्थितियों में ऐसे आयोजनो का महत्व वैचारिक भी रहा होगा। आज की तरह तब सशक्त मीडिया नहीं था और मेले के आयोजन के साथ अलग अलग रुझानों एवं कारोबारों से जुड़े लोग अपने संपर्क सूत्र तलाशने और उन्हें अधिक प्रभावी करने के अवसर खोजते रहे होंगे। इन्हीं समूहों में विचारक, मनीषी एवं सामाजिक कार्यों से जुड़े लोगों की भी उपस्थिति स्वाभाविक थी। कहने का अर्थ यही है कि यह आयोजन सिर्फ धार्मिक न होकर बहुआयामी था। यह उस देश काल में समाज की धार्मिक, आर्थिक, कारोबारी, और सामाजिक जरूरतों के लिए एक मंच या यों कहें अलग अलग मंच प्रस्तुत करता था। समय के साथ इसमें बदलाव आना स्वाभाविक था और ऐसा हुवा भी।
सागर मंथन और उसके इतर
इस आयोजन का आरंभ बिन्दु सागर-मंथन माना जाता है जिसके परिणामस्वरूप प्राप्त वस्तुओ में अमृत कलश भी था और उसे प्राप्त करने हेतु देवों-दानवो के बीच छीना-झपटी होने लगी और उसी दौरान कुछ अमृत कई स्थानो पर गिरा जिनमे त्रिवेणी वाला भाग भी एक था। मंथन में मिला तो विष भी था उसे कौन लेता लेकिन भगवान शिव ने उसे पीकर सभी को इस दुविधा से मुक्त कर दिया। यह कहना मुश्किल है कि कब से इस संगम स्थल पर मेले का आयोजन आरंभ हुवा होगा? आरंभिक समय जो भी रहा हो, तब स्नान के साथ अमृत का पुण्य लाभ अवश्य सबसे महत्वपूर्ण कारण रहा होगा। धीरे धीरे अधिक लोगो का आना शुरू हो गया और आयोजन ने मेले का रूप ले लिया।
आज के युग में जब वह वैचारिक एवं कारोबारी विनिमय संचार माध्यम के द्वारा आसानी से होने लगा है यह आयोजन मुख्यतः धार्मिक ही रह गया है जैसा कि आरंभ में रहा होगा। एक विशेष परिवर्तन आज के दौर में उभर कर आता रहा है वह है विशुद्ध कारोबारी। लोकतन्त्र द्वारा किसी देश का प्रबंधन अब तक के ज्ञात तरीकों में सबसे अच्छा माना जाता है इसमें संदेह नहीं पर इसका गलत लाभ उठाने वालो द्वारा दुरुपयोग किये जाने की संभावना भी अधिक है। बात सिर्फ संभावना तक ही नहीं, इसके आगे भी है। महाकुंभ समापन के- समय तक यह खबर आने लगी थी कि स्नान ध्यान के फोटो एवं वीडियो बनाकर गलत इरादो से सोशल मीडिया में भेजे जा रहे थे।
संगम, सरिता और प्रवाह
मेरे और हजारों अन्य इन्सानो के लिए इन शब्दो के अर्थ पारंपरिक अर्थो से अलग भी हैं, पिछली सदी के मध्यवर्ती दशकों में अनेक छात्रों के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय एक वैचारिक संगम ही तो था जहां उत्तर भारत के लगभग सभी हिस्सों से लोग आकर बहुआयामी एवं बहुस्तरीय संगम की रचना करते थे, एक ऐसा संगम, जो मिलन स्थल था विचारों का, शिक्षण विधाओ का, परम्पराओं का। एक उभरते राष्ट्र के लिए ऐसे वैचारिक संगम इस विशाल देश में अनेक स्थानों पर उद्भाषित हुए जिनमें यह नगर भी एक था। यह समय कई मायनों में राष्ट्रीय पुनर्जागरण का युग प्रवर्तक था।
त्रिवेणी में तीन सरिताओं का मिलन है जिनमें सरस्वती नाम विद्या की देवी से भी जुड़ा हैं। उसे अदृश्य माना जाता है पर मेरे समान कुछ लोग सरस्वती को विश्वविद्यालय एवं उसकी क्रियाशीलता में प्रतिबिम्बित पाते हैं। इलाहाबाद ही नहीं, अपितु एक नवोदित राष्ट्र के उभरते सभी विश्वविद्यालयो में उजागर होना चाहिए विचारों एवं अवधारणाओं का अविरल प्रवाह, और उन अनेक स्वतंत्र प्रवाहो के मिलन एवं उनका एक बड़ी धारा में रूपान्तरण। हम छात्रों के लिए वह अविस्मरणीय समय था जब दो विराट संगम अलग अलग तरीकों से परम्पराओं की निरंतरता के साथ अबाध वैचारिक प्रवाहों का साक्षात्कार प्रस्तुत कर रहे थे देश की सांस्कृतिक विरासत को सहेजता तीन नदियो का संगम और आगत के भारत की रूपरेखा उद्भाषित करने में प्रयासरत वैचारिक एवं अवधारणात्मक संगम।[3]
मन में घट रहा बहुत कुछ बाहर की घटनाओ को प्रतिबिम्बित करता प्रतीत होता है। विचारो का प्रवाह बहुत कुछ सरिता प्रवाह के समान ही है। एक विचार जन्म लेता है और धारा समान प्रवाहित होता आगे बढ़ता है। कुछ समय बाद उसमे एक और विचार आकर जुड़ता है और इस तरह दो विचारो का एक संगम प्रस्तुत होता है, एक छोटा सा मिलन दो प्रवाहों का। विचार-प्रवाह या सरिता-प्रवाह दूसरे वैसे ही प्रवाहों से मिलकर विकसित होते हें। विचारो का संगम एक स्वाभाविक एवं निरंतर प्रक्रिया है। प्रवाहों के मिलन एवं मिलन निष्कर्षो ( या संगमों) के प्रवाह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है और यह विचारो के विकास को वैसे ही प्रतिबिम्बित करते हें जैसे सरिता प्रवाह को।
मानस-सागर
बात कुम्भ से आरंभ हुई थी जिसका उद्गम सागर मंथन की घटना में था। एक दूसरे प्रकार मंथन इन्सानो के मन में निरंतर चलता रहता है जिसे मानस-मंथन या आत्म-मंथन की संज्ञा दी जा सकती है। मन में विचारो की हलचल सामान्य प्रक्रिया है और जरूरी भी। लेकिन ऐसा समय भी आता है जब यह हलचल टकराहट का रूप ले लेती है जो विध्वंष का कारण बनती है। चेतन मन की थोड़ी जानकारी हमे रहती है पर अवचेतन एवं अचेतन की गहराइयो की जानकारी अप्रत्यक्ष ही हो सकती है। जिस धरती पर इंसान जन्मा एवं पला बढ़ा वह भी तो अंदरूनी हलचल से सराबोर रहती है। नगाधिराज हिमालय का जन्म एक विराट विध्वंष का निष्कर्ष है। दो विशाल भूखंडो की विराट टकराहट[4] का निष्कर्ष ही था जो आज से 4 या 5 करोड़ साल पहले घटित हुवा होगा। दो विशाल भूखंडो की इस टक्कर में बीच का भाग बहुत कुछ नष्ट हो गया। टक्कर से उत्पन्न विराट दाब के कारण बीच का हिस्सा उठने लगा और आज भी यह प्रक्रिया जारी हैं। विनाश के साथ सृष्टि का यह खेल धरती मे अनवरत खेला जाता रहा है और यह धरती के अंदर की मंथन प्रक्रिया का ही हिस्सा है। सागर मंथन में बहुत कुछ मिला जिनमें अमृत था तो विष भी था। बात सागर की हो, मानस सागर की हो या धरती की टेक्टोनिक परतो की, सृष्टि और विध्वंष की प्रक्रियाए अबाध रूप से चलती रहती हे।
मानस मंथन मे भी बहुत कुछ सामने आता है वह जो वांछित है और अक्सर वह भी जिसे हम अवांछित समझते है। अमृत भी और विष भी, अच्छा या बुरा भी। बिष से निजात दिलाने हर बार भगवान नहीं आएँगे उसे हमे स्वयं ही निपटना होगा। इस कार्य में एक इंसान अपने प्रयासो से थोड़ा बहुत योगदान दे सकता है, जहां तक एक राष्ट्र का सवाल है, बहुत कुछ सामूहिक चिंतन-प्रवाहों, उनके संगमों एवं परंपराओ से निर्धारित होता है। लघु कालखंड में एक इंसान का स्वतंत्र स्वस्थ चिंतन एक छोटी धारा रूप प्रभावी हो सकता है। दीर्घ कालखंड में यही छोटी सी शुरुवात भी मायने रखती है जब अनेक संगमों से गुजरते एक छोटी धारा (अन्य धाराओं से मिलकर) बड़ी सरिता का रूप ले सकती है।
पारंपरिक एवं आधुनिक
यहाँ पर एक और तरह का संगम नजर आता है, वह है पारंपरिक एवं आधुनिक का संगम. पारंपरिक एवं आधुनिक अक्सर एक दूसरे से विरोध की स्थिति में दिखाई देते है परंतु उन्हें पूरक की स्थिति में लिया जा सकता है। महाकुंभ के इस अवसर पर गंगा-यमुना के संगम पर पारंपरिक एवं आधुनिक का संगम अपनी लोकलुभावन छवि में प्रस्तुत था और किसी विशेष संदर्भ में अत्यंत प्रभावी भी। गौर करने पर यह साफ नजर आता है कि जो आधुनिक था वह मुख्यतः टेकनालजी एवं औद्योगिकीकरण का प्रभाव था लेकिन सोच में आधुनिकता का अभाव था। सूचना प्रौद्योगिकी के युग में अनेक स्तरो पर सूचना सम्प्रेषण का बाहुल्य अन्तर्मन तक प्रेषित नही हो सका। एक समृद्ध परंपरा और महान संस्कृति की विरासत के बावजूद कुछ तो था जो हमे ‘तमसो माँ ज्योतिर्गमय’ की मूल भावना की हवा तक लगने नहीं देता।
यहाँ बात केवल एकदैशिक और एकस्तरीय सोच की न होकर सर्वांगीण सोच की हो जाती है। इक्कीसवी सदी के तीसरे दशक में भी हम सब इन्सानो की समानता की सैद्धांतिक स्वीकृति तक नहीं दे पाते। मानव गरिमा की अवधारणा जब न स्वीकार हो तब जमीनी हकीकत में उसकी बात करना निरर्थक लगता है। हाँ, अगर भीड़ का संख्यात्मक रिकर्ड बनाना उपलब्धि है तो हम किसी से पीछे नही लेकिन जब बात संख्या की न होकर गुणवत्ता की हो तब हम अंतर्राष्ट्रीय `पायदान में बहुत नीचे स्तर पर नजर आते हैं।
इस सबके बावजूद ऐसा भी नहीं कि सभी कुछ निराशाजनक ही है। आज़ादी के बाद के दशको में बहुत कुछ था जो बदल रहा था और सही दिशा में। विश्वविद्यालय के जिस सृजनशील माहौल का जिक्र पहले किया गया वह धीरे धीरे अपनी विशिष्टता खोने लगा था। प्रतिभा का अभाव इसका कारण न था अपितु प्रतिभा की सही पहचान, उपयोग एवं प्रबंधन में अक्षमता इसका कारण था। हम बाते बड़ी करते है ‘वादे वादे जायते तत्वबोध:’, पर हम इसे कीर्तन की तरह दोहराते रहते है और सारे वादविवादों के बावजूद तत्वबोध की विपरीत दिशा में भागते नजर आते हें। कुछ वैसे ही जैसे हम ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की बात करते है और अपने ही दलित एवं पिछड़े को उस कुटुंब मे बिलकुल नहीं मानते। यह उच्च कोटी का दोगलापन या ही[पोकरिसी है।
बात निकलेगी तो
महाकुंभ हो या कोई अन्य मेला, एक समाज के रुप में हम कठिन सवालो के समाधान खोजने के बजाय आरोपो, प्रत्यारोपो के दलदल में फँसते नजर आते हैं। विश्व की सबसे बड़ी आबादी और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था क्या गर्व करने के लिए पर्याप्त है? 140 करोड़ में से लगभग सौ करोड़ गरीबी, कुपोषण और बदहाली में जी रहे हों तो हमारी सरकारो का अपनी अधिकांश ऊर्जा स्वयं के अस्तित्व के लिए ही लगा देना क्या तर्कसंगत एवं न्यायोचित माना जा सकता है? तीसरी अर्थव्यवस्था पर गर्व करे या प्रतिव्यक्ति आय की 120 वी पायदान पर, इसका वस्तुपरक निर्णय क्या हम ले सकेंगे? हम विरोधाभासों में जीते है और उससे बाहर निकालने का रास्ता खोजना ही नहीं चाहते। यह निबंध लिखते समय दो बाते चर्चा में रही। हमारे महानगरो में एक दर्जन सफाई कर्मियों की सीवर गटर की सफाई करते समय जहरीली गॅस के कारण मृत्यु हो गई। इस तरह की घटनाएं कोई अपवाद न होकर एक नियम सा बन गया है। बिना मास्क या आक्सीजन के गटर में उतरकर काम करना उनकी मजबूरी रही। लेकिन यह बात सुर्ख़ियो में नही थी। सुरखिया बटोर रही खबर दूसरी थी कि प्रीमियर क्रिकेट लीग की नीलामी में कौन खिलाड़ी कितने करोड़ में नीलाम हुवा।
मंथन निरंतर चल रहा है और चलता रहेगा। बात सरकारो की ही नहीं, औरों की भी होनी चाहिये। हमारा प्रबुद्ध वर्ग निष्प्राण सा लगता है जो देश व समाज के ज्वलंत मुद्दों पर फोकस नही कर पाता या करना नहीं चाहता। हमारे देश में प्रबुद्ध लोग जरूर हैं पर लगता है प्रबुद्ध वर्ग अनुपस्थित है। विचार प्रवाह अबाध रूप से चल रहा है और चलता रहेगा। पर इसकी कम ही संभावना है कि हम किसी ठोस एवं सार्थक निष्कर्ष पर पहुँच सकेंगे। ऐसा क्यो है यह समझने का प्रयास करेंगे।
हमने विचार प्रवाह की बात की है और अलग अलग प्रवाहों के मिलन बिन्दु यानि संगम की भी। एक राष्ट्र के रूप में हमारी आधुनिक पहचान केवल 75 साल पुरानी है और अभी इसमे कुछ और वक्त की दरकार है। पर असली बात जिसका जिक्र यहाँ किया जाना जरूरी है वह है हमारे सामूहिक चिंतन प्रक्रिया में श्रंखलाबद्धता की कमी। इस बात को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे।
कितनी समानता है जल प्रवाह एवं विचार प्रवाह में। दो विचार जुडते है एक वैचारिक संगम बनता है । यह सम्मिलित धारा आगे प्रवाहित होती है एक बड़ी धारा बनकर। तीसरी धारा आ जुड़ती है और बात क्रमशः आगे बढ़ती बदती है। चिंतन दो प्रकार से विकास करता है समांतर विधा में एवं श्रंखला विधा में। मान ले हम किसी समस्या को सुलझाना चाहते हैं हजारो लोग अपना दिमाग लगाते है और हर एक का अलग मत हो सकता है। यह समांतर चिंतन है। पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए मिलकर बैठना होगा और एक कार्यकारी चिंतन धारा को अमली रूप देना होगा। यह कार्यकारी धारा आपसी सहमति से बने तो उत्तम है अन्यथा बहुमत से निर्णय लिया जा सकता है। कुछ लोग इस प्रक्रिया से असंतुष्ट हो सकते है और प्रवाह मे बाधा पहुँच सकती हैं। यह सम्मिलित विचार आगे बढ़ता है तो उसमे कुछ और विचार या अवधारणाएँ आ जुड़ती है और इस तरह विचारो की एक श्रंखला निर्मित हो जाती है। यह श्रंखलाबद्ध चिंतन विधा है और बात इस तरह विकासोन्मुख बनती जाती है।
इस बात को एक अन्य तरीके से समझ सकते हैं। श्रंखलाबद्ध चिंतन[5] एक रिले रेस की तरह है मैं कुछ दूरी तय करता हूँ और उसके बाद दूसरा धावक मेरी जगह दौड़ना शुरू करता है। इसी तरह अगले चरणों में तीसरा, चौथा धावक अपना काम करते है। इस दौड़ की तुलना उस एकल दौड़ से करे जिनमे हर धावक अलग है और अपने ही लिए जिम्मेदार है। रिले रेस एक टीम भावना की दरकार रखती है और इसमे कुशल होने के लिए टीम भावना जरूरी है। टीम भावना के लिए बहुत जरूरी है न्याय संगत चयन एवं श्रेय एवं सम्मान की सही भागेदारी।
हमारी बात
समांतर चिंतन में हम सही हें अपनी अपनी जगहो पर। सारी विविधता को समेटे हम हर विचार या पद्धति के प्रति स्वीकारी भाव रख सकते है। पर उन सारे विचारो का मंथन कर एक कार्यकारी विचार धारा का विकास जिस रिले दौड़ की अपेक्षा रखता है उसमें हमारी कमजोरी साफ नजर आ जाती है। टीम भावना के लिए पारस्परिक विश्वास चाहिए और ऐसा तभी होगा जब न्यायपूर्ण चयन प्रक्रिया हो और श्रेय व सम्मान वितरण में तार्किकता एवं निष्पक्षता साफ दिखाई दे।
कुम्भ से वैचारिक कुम्भ तक
आज से करीब चौदह सौ साल पहले कुम्भ के अवसर पर स्नान के साथ वैचारिक संगम और उसका अविरल प्रवाह एक बड़ी उपलब्धि थी पर वैसा अब नही है। आधुनिक प्रौद्योगिकी के युग में विचारो की श्रंखला आगे ले जाने के लिए संचार माध्यम का सहारा है लेकिन टीम भावना अगर कमजोर हो तब प्रौद्योगिकी भी क्या कर सकती है। इन सवालो से हमे रूबरू होना ही पड़ेगा और उनके तर्कसंगत उत्तर भी तलाशने होगे। विश्लेषण एवं संश्लेषण प्रक्रियाओं से गुजरते समूहिक आत्ममंथन ही हमें उन मूलभूत निष्कर्षों तक पहुंचा सकता है जो हमारा अभीष्ट है।
जनता के जीवन के संवेदन सत्यों के चित्रो से
तथ्यो के विश्लेषण-संश्लेषण बिंबो से
बनाकर धरित्री का मानचित्र
दूर क्षितिज फ़लक पर टांग जो देता है
वह जीवन का वैज्ञानिक, यशस्वी कार्यकर्ता है
मनस्वी क्रांतिकारी वह। - गजानन माधव मुक्तिबोध
[1[ राजा हर्षवर्द्धन सातवी ईस्वी के प्रथमार्द्ध में मध्य उत्तर भारत के बड़े भूभाग के शासक थे। कुम्भ मेले में उनकी भागीदारी एवं योगदान का जिक्र किया गया है।
[2] चीनी यात्री हवेन त्संग 629 ईस्वी में भारत के लिए प्रस्तढ़न किया और भारत में लगभग 15 वर्ष बिताए। इसी समयांतरल में कुम्भ मेले में वे शामिल हुए जिसका वर्णन उन्होने किया है।
[3] चन्द्र मोहन भण्डारी, स्वातंत्र्योत्तर भारत का एक सृजनशील कालखंड, सेतु पत्रिका,नवंबर 2019।
[4] Russell Banks, Continental Drift, Harper Perennial Modern Classics, 2007
[5] सी एम भण्डारी, Land of parallel walkers, Mainstream Weekly, Vol 50, No 45, Oct 27, 2012.
- चंद्रमोहन भण्डारी
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