अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, चलिए अपनी लीडिंग लेडीज़ की मेहनत से अर्जित जीत का जश्न मनाते हैं। वे अबला नारी से नौकरी वाली अबला नारी बन गई हैं। आख़िर, यही
सुपरवुमन लेकिन साइड कैरेक्टर
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आ गया है! यह दिन महिलाओं का जश्न मनाने, उनके संघर्षों की सराहना करने और सबसे ज़रूरी काम—कॉरपोरेट विज्ञापन जारी करने के लिए है, ताकि कंपनियाँ दिखा सकें कि वे वास्तव में लैंगिक समानता को लेकर कितनी संजीदा हैं।
यह समय यह सोचने का भी है कि भारतीय मनोरंजन ने महिलाओं को चित्रित करने में कितनी प्रगति की है। 1972 में जॉन बर्जर ने कहा था - पुरुष एक्टिंग करते हैं, महिलाएँ प्रकट होती हैं। पुरुष देखते हैं, महिलाएं स्वयं को देखे जाते हुए देखती हैं। अगर भारतीय फिल्में और टीवी शो देखे जाएँ तो महिलाएँ अब भी खुद को देख रही हैं—जबकि पुरुष उनका भविष्य लिखने में व्यस्त हैं।
हमारी हिरोइनों की निश्चित रूप से तरक्की हुई है। वे दिन गए जब उनका एकमात्र उद्देश्य विलेन से बचना हुआ करता था। उनकी एक ही महत्वाकांक्षा हुआ करती थी - हीरो से शादी करना। फ़िल्में शादी पर ही ख़त्म होती थीं क्योंकि शादी के बाद औरत की ज़िंदगी में भला और क्या हो सकता था? आज की फिल्मों में प्रगति दिखती है। हीरोइन पहले सीईओ बनती है, कोई प्रतिष्ठित पुरस्कार जीतती है, या अकेले दम पर बिजनेस एम्पायर चलाती है, और फिर महसूस करती है कि यह सब बेकार है जब तक कि हीरो को नहीं पा लिया। और बस, इसी एहसास के साथ वह सब कुछ त्याग देती है ताकि हीरो से शादी कर सके —क्योंकि असली नारीवाद तो पसंद की आज़ादी के बारे में है।
हीरोइन भले ही फैक्ट्री की मालकिन हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसकी इज़्ज़त फैक्ट्री के मजदूर (यानी हीरो) से ज़्यादा है। हीरो उसे नीचा दिखाएगा, बेइज़्ज़ती करेगा, चोट पहुंचाएगा, और उसे ज़िंदगी का असली मतलब सिखाएगा। हीरो का ये रूप देख कर हीरोइन को उससे प्यार भी हो जायेगा। चाहे वह कुछ भी हासिल कर ले, असली नायक हीरो ही रहेगा।
महिलाएँ सिर्फ़ पुरुषों की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए हैं। अगर वे हीरो का साथ नहीं दे पा रही है तो इसलिए क्योंकि उनको आइटम डांस पर थिरकना है। सशक्त ऑब्जेक्टिफिकेशन के तहद अब महिलाओं के पास अधिकार है कि वो किन गानों पे नाचना चाहती हैं। जिसमें उनको तंदूरी मुर्गी बताया जा रहा है, जलेबी से तुलना हुई है, या फिर लोल्लिपोप से।
हीरो की बहन को मत भूलिए। मसालेदार फिल्मों के स्वर्णिम युग में अगर हीरो की बहन थी तो उसका भाग्य पहले से तय था—दूसरे हाफ़ तक वह बलात्कार की शिकार हो जाती थी, और अगर क़िस्मत अच्छी हुई, तो मार दी जाती थी। नहीं तो हीरो समाज में कैसे मुँह दिखाता? नौकरी कैसे करता, जब तक अपनी बहन के ज़िंदा होने का बोझ ढोता? लेकिन आज उसे थोड़ी और छूट दी गई है। अब वह अपनी पढ़ाई पूरी करती है, और कभी-कभी नौकरी भी कर लेती है—फिर उसका यौन शोषण होता है।
सास-बहू सीरियल्स आज भी कहानी कहने की असली धुरी बने हुए हैं। हर ड्रामा एक आत्मनिर्भर और महत्वाकांक्षी महिला से शुरू होता है। पाँचवें एपिसोड तक वह एक बहु-अमीर, बहु-अहंकारी, बहु- अशिष्ट, बहु-महत्वपूर्ण आदमी से शादी कर चुकी होती है, जो उसे पोछे से भी बदतर समझता है। हीरो का पूरा परिवार—एक बुजुर्ग को छोड़कर—उससे नफ़रत करता है और रोज़ाना उसे बेइज़्ज़त करता है। लेकिन यह औरत, जिसके बड़े-बड़े सपने थे, अब अपना पूरा जीवन इस परिवार के लिए बलिदान करने का फ़ैसला कर लेती है। क्यों? क्योंकि उस बुज़ुर्ग ने एक बार कह दिया: बस तुम ही इस परिवार को बचा सकती हो ।
इस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, चलिए अपनी लीडिंग लेडीज़ की मेहनत से अर्जित जीत का जश्न मनाते हैं। वे अबला नारी से नौकरी वाली अबला नारी बन गई हैं। आख़िर, यही तो प्रगति है।
- चंचला बोरा
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