त्यागपत्र उपन्यास की मनोवैज्ञानिक चेतना जैनेंद्र कुमार साहित्यिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें मनोवैज्ञानिक चेतना की गहरी अभिव्यक्ति मिलती है
त्यागपत्र उपन्यास की मनोवैज्ञानिक चेतना | जैनेंद्र कुमार
त्यागपत्र उपन्यास जैनेंद्र कुमार के साहित्यिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें मनोवैज्ञानिक चेतना की गहरी अभिव्यक्ति मिलती है। यह उपन्यास न केवल एक कथा के रूप में उभरता है बल्कि मानव मन के अंतर्द्वंद्व, संघर्ष और आत्मबोध की एक सूक्ष्म अध्ययनशील रचना भी है। जैनेंद्र कुमार ने इसमें मनोविज्ञान के तत्वों को इस प्रकार समाहित किया है कि पात्रों की आंतरिक दुनिया पाठक के सामने सजीव हो उठती है।
जैनेन्द्र कुमार जी के 'परख', 'सुनीता', 'त्यागपत्र', 'कल्याणी' आदि उपन्यासों में व्यक्ति को केन्द्र बनाकर व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से व्यक्ति के निजी कुण्ठाजन्य मानसिक द्वन्द्वों का मनोविश्लेषण किया गया है। इसी कारण जैनेन्द्र कुमार जी के उपन्यासों में युग जीवन की किसी व्यापक, ज्वलन्त समस्या अथवा समस्याओं को न उठाकर, व्यक्ति के विशुद्ध वैयक्तिक अन्तर्विरोधों के संघर्ष को ही चित्रित किया गया है। इस कारण न जैनेन्द्र कुमार जी के उपन्यासों के पात्र गरिमामय बन सके हैं और न युग जीवन को प्रभावित करने की सामर्थ्य ही रखते हैं। इनके उपन्यासों के कथानक और पात्र लगभग एक समान हैं, केवल नाम बदल दिये गये से प्रतीत होते हैं। निराशा, उद्विग्नता, निष्क्रियता, लक्ष्यहीनता, आत्मकेन्द्रीयता और काम कुण्ठाओं से आक्रान्त रहना - जैनेन्द्र कुमार जी के पात्रों की विशेषताएँ स्वीकार की जा सकती हैं।
जैनेन्द्र कुमार जी की विचित्र दार्शनिकता उनके पात्रों को विचित्र और अस्वाभाविक बना देती हैं। उनका कथा कहने का कौशल, मनोरम जटिल भाषा और सहज शैली उनके उपन्यासों को रोचकता और लोकप्रियता प्रदान करती है। कुछ समय पश्चात् जैनेन्द्र कुमार जी ने एक नया शिगूफा छोड़ा कि कलाकार के लिए पत्नी के अतिरिक्त एक प्रेमिका का होना नितान्त आवश्यक हैं, क्योंकि प्रेमिका ही कलाकार को कला सृजन के लिए प्रेरणा दे सकती है, पत्नी तो उसकी बाधक होती है। जैनेन्द्र जी के इस वक्तव्य को लेकर पर्याप्त आलोचना और विरोध हुआ है।
डॉ० नगेन्द्र द्वारा सम्पादित 'हिन्दी साहित्य का उपन्यास' में जैनेन्द्र कुमार जी का मूल्यांकन इन शब्दों में किया गया है- "हिन्दी उपन्यास को प्रेमचन्द युग में ही नयी दिशा देने का सफल प्रयास किया जैनेन्द्र ने। विवेच्य काल (छायावाद युग अर्थात् सन् 1918 और 1938 ई० में) उनके तीन उपन्यास प्रकाशित हुए-सुनीता, परख और त्यागपत्र, हिन्दी उपन्यासों को उनसे जो पाना था, वह इन्हीं कृतियों में मिल गया। 'परख' में समकालीन सामाजिक उपन्यासों की परम्परा से अलग लीक पर चलने का प्रयास किया गया है। लेखक (जैनेन्द्र जी) ने व्यापक सामाजिक जीवन को अपने उपन्यासों का विषय न बनाकर व्यक्ति मानस की शंकाओं, उलझनों और गुत्थियों का चित्रण किया है। उनके उपन्यासों की कहानी अधिकतर एक परिवार की कहानी होती है और वे शहर की गली और कोठरी की सभ्यता में ही सिमटकर व्यक्ति पात्रों की मानसिक गहराइयों में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं। जैनेन्द्र की अगर कोई त्रुटि है तो यह कि वे अपने पात्रों को पहेली बनाकर छोड़ देते हैं और पाठक उस मनोवैज्ञानिक पहेली को सुलझाने के असफल प्रयत्न में उलझा रह जाता है। जो हो, उन्होंने हिन्दी उपन्यास को असन्दिग्ध रूप से नयी दिशा प्रदान की है और उपन्यास को सामाजिक यथार्थ ही नहीं, मनोवैज्ञानिक यथार्थ के क्षेत्र में भी प्रवेश करने की राह सुझायी। इस प्रकार उन्हें हिन्दी में मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की परम्परा का पुरस्कर्त्ता माना जा सकता है। वैसे उन्होंने हिन्दी उपन्यास को नये शिल्प और नयी भाषा से भी समृद्ध किया है।
'परख' में यद्यपि उन्होंने प्रेमचन्द की दृश्यात्मक और परिदृत्मक पद्धति को मिश्रित रूप में अपनाया है, पर सिलसिलेवार कहानी कहने की जरूरत जितनी प्रेमचन्द समझते थे, उतनी जैगेन्द्र ने नहीं समझी। 'परख' की भाँति 'सुनीता' और 'त्यागपत्र' भी वयस्क और संवेदनशील पाठकों के लिए लिखे गये उपन्यास हैं-विषय और शिल्प दोनों दृष्टियों से त्यागपत्र में समूची कथा एक पात्र विशेष के अवलोकन बिन्दु से प्रस्तुत की गयी है जो निश्चय ही नाटकीकरण की विकसित पद्धति है। कथ्य के अनुरूप उनकी भाषा में नवीनता है। सादगी उनकी भाषा की भी विशेषता है, पर वह प्रेमचन्द की भाषा की सादगी से भिन्न है। जैनेन्द्र की भाषा स्वगतालाप अथवा खुद, बहुत हुआ तो किसी आत्मीय से चुप-चुप की जाने वाली बातचीत की भाषा है। इसलिए सरल होने पर भी आन्तरिक मनोभावों को व्यक्त करने की उसमें अद्भुत क्षमता है। इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी उपन्यास को जैनेन्द्र की देन महत्त्वपूर्ण है।"
जैनेन्द्र जी का यह उपन्यास नवीन मनोवैज्ञानिक चेतना प्रस्तुत करता है। जब मृणाल कक्षा नौ में पढ़ती थी, तब की एक घटना उसकी मनोवैज्ञानिक सोच पर प्रकाश डालती है। मृणाल ने अपने भतीजे प्रमोद से कहा-
"प्रमोद ! वह हैं नहीं गणित के मास्टर ! शीला ने उनकी कुर्सी की गद्दी में पिन चुभोकर रख दी, शीला बड़ी नटखट लड़की है। मास्टर की एक आँख तूने नहीं देखी प्रमोद! मास्टर देखते इस तरफ हैं तो वह आँख किसी और तरफ देखती है। पिन जो चुभी तो खूब बिगड़े। डपटकर बोले- यह किसकी शरारत है? वह खड़ी हो जाये। सब लड़कियाँ सहमी बैठी रहीं। शीला ऐसी हो गयी, जैसे ऊदबिलाव के आगे मूसी । उनको बहुत गुस्सा था। उनका गुस्सा देखकर सब लड़कियाँ एक-दूसरे की तरफ देखने लगीं। यह मुझको बुरा लगा। मैंने खड़े होकर कहा-यह मेरा कसूर है मास्टर जी! मास्टर जी पहले तो मुझे देखते के देखते रहे। फिर कहा-यहाँ आओ। मैं चली गयी। कहा-हाथ फैलाओ। मैंने हाथ फैला दिया। उस फैली हथेली पर उन्होंने तीन-चार बैंत मारे। मैंने समझा कि और मारेंगे। पर जब बेंत उन्होंने अपने हाथ से अलग रख दिया तो मैंने भी अपना हाथ खींच लिया। सच कहूँ प्रमोद मुझे कुछ भी चोट नहीं लगी। मैं उनकी उस आँख की तरफ देख रहीं थी। मास्टरजी मुझे देख रहे थे, पर वह आँख जाने कहाँ देख रही थी।"
मृणाल की यह घटना असामान्य मनोवैज्ञानिक चेतना का लक्षण ही कहा जायेगा। अगर मास्टर जी सभी लड़कियों को पीटते तो मृणाल के हाथ दो-एक बैंत ही लगता। इसी प्रकार जब प्रमोद ने मृणाल से कहा-“तुम मेरी तो बुआ हो।" इसे सुनकर मृणाल बोली-"मैं नहीं बुआ होना चाहती। बुआ ! छीः। देख, चिड़ियाँ कितनी ऊँची उड़ जाती हैं। क्यों रे! कैसी मौज है? नन्हीं सी चिड़िया, नन्हीं सी पूँछ। मैं चिड़िया बनना चाहती हूँ।" एक लड़की का चिड़िया होने की इच्छा करना असामान्य मनोवृत्ति का ही परिचायक है।
जाने या अनजाने में मृणाल का शीला के भाई से यौन सम्पर्क हो गया। उनकी भाभी ने मृणाल के शाम तक घर न आने पर नौकर भेजकर शीला को घर से बुलाया और बँत से बुरी तरह पीटा। इसके बाद बहुत जल्दी मृणाल का विवाह ऐसे पुरुष से कर दिया गया, जिसकी पत्नी की मृत्यु हो गयी थी और जो उसके पिता से भी अधिक आयु का लगता था। ससुराल में मृणाल के नाम शीला के भाई का पत्र आया जो डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था : मृणाल ने उसका सामान्य सा उत्तर दे दिया और दोनों पत्रों के विषय में पति को बता दिया ।
मृणाल जिस उपन्यास की प्रमुख पात्र है, उसका नाम 'त्यागपत्र' सार्थक होने की घटना प्रमोद को इस रूप में ज्ञात हुई - "बहुत दिनों के बाद जो बात मैंने जानी, वह यह थी कि पति ने बुआ को त्याग दिया है। बुआ दुश्चरित्र है और फूफा को मालूम है कि यह सदा से ऐसी है । छोड़ दिया है, इसका मतलब एकाएक समझ में नहीं आया। छोड़ कहाँ दिया है? क्या वह खुद चली गयी है या किसी अलग स्थान पर उनको रख दिया गया है कि उसी घर में ही हैं और सम्बन्ध विच्छेद हो गया है। पता चला कि उसी शहर में एक अलग छोटे से घर में रख दिया है, कोठरी है। उसमें चाहे जैसे रहें, चाहे जैसे खायें-पियें।"
मृणाल कोयला बेचने वाले बनिये के साथ उस घर से भागकर दूसरे शहर में उस गली में रहने लगीं, जहाँ दिन में भी अँधेरा रहता है। प्रमोद को बुआ ने बताया कि मैं अधिक दिन यहाँ नहीं रह सकूँगी। यह आदमी जिसके साथ मैं रह रही हूँ, मुझे ज्यादा दिन नहीं रख सकेगा। एक दिन यह मुझे छोड़कर चला जायेगा। प्रमोद ने पूछा-फिर क्या करोगी ? इस प्रश्न के उत्तर में मृणाल ने जो कहा, वही 'त्यागपत्र' उपन्यास की मनोवैज्ञानिक चेतना है। मृणाल ने कहा- "वेश्यावृत्ति नहीं करने लगूँगी, इसका विश्वास रखो। जिसको तन दिया, उससे पैसा कैसे लिया जा सकता है, यह मेरी समझ में नहीं आता । तन देने की जरूरत मैं समझती हूँ। तन दे सकूँगी, शायद वह अनिवार्य हो। पर लेना कैसे ? दान स्त्री का धर्म है। नहीं तो उसका और क्या धर्म है? उससे मन माँगा जायेगा, तन भी माँगा जायेगा। सती का आदर्श और क्या है? पर उसकी बिक्री-न, न, यह मुझसे न होगा ।"
पति के अतिरिक्त किसी पर पुरुष का स्पर्श जिस देश में नीचता और घोर पाप माना जाता हैं, मृणाल की यह मान्यता इस देश की नहीं है। यह मान्यता पश्चिम के मुक्त यौन व्यापार की है, जहाँ सम्भोग कराने की इच्छा होने पर किसी से भी उसी प्रकार वासना की शान्ति की जा सकती है, जिस प्रकार भूख लगने पर किसी दुकान अथवा होटल से खाना खाया जा सकता है, जिसे किसी ने भी और कैसी भी सामग्री से बनाया हो। मुक्त सहवास की यह मान्यता भारतीय संस्कृति की किसी प्रकार भी नहीं है। डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त ने इस मान्यता को फ्रायड से प्रभावित बताया है जो प्रत्येक प्रसन्नता और सन्तोष का मूल काम-वासना को मानता है।
मृणाल ने अपने आपको सती कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि पति के अतिरिक्त पुरुष अथवा पुरुष से यौन सम्बन्ध को वह पवित्र और पुण्य कार्य मानती है। उसकी दृष्टि में यह नारी का धर्म, नारी का दान है। अपना तन और मन देने के अतिरिक्त नारी का अन्य धर्म मृणाल की दृष्टि में नहीं है।
मृणाल के पति ने उसे अपने घर से निकाला नहीं था, मृणाल ने स्वयं यह प्रस्ताव किया था । मृणाल ने प्रमोद से बातें करते हुए पतिव्रता का जो धर्म बताया है, वह भारतीय आर भारतीय मनोविज्ञान का कदापि नहीं हो सकता। मृणाल का शीला के भाई से यौन सम्बन्ध रहा था और वह गर्भवती हो गयी थी। इसे जानकर ही मृणाल के पति ने उसे छोड़ा। उसने अपने भतीजे प्रमोद को बताया- "ब्याह के बाद मैंने बहुत सोचा, छल पाप है। हुआ जो हुआ, ब्याहता को पतिव्रता होना चाहिए। उसके लिए पहले उसे पति के प्रति सच्चा होना चाहिए। सच्ची बनकर ही समर्पित हुआ जा सकता है।"
प्रमोद ! शीला के भाई को तुम जानते हो। उनका एक पत्र आया था। पत्र में कुछ विशेष बात नहीं थी। लिखा था- "मैं अब सिविल सर्जन हूँ। शादी नहीं हुई है, न करूँगा। तुम्हारा विवाह हो गया है, तुम सुखी रहो। मेरे लायक कोई सेवा हो तो लिख सकती हो।" उसी पत्र को लेकर मेरे मन में सोच-विचार का चक्कर चला था, मैंने जवाब में लिख दिया -" आपके पत्र के लिए कृतज्ञ हूँ आइन्दा आप कोई पत्र न लिखें। मैं सुखी होने की कोशिश कर रही हूँ।" जवाब देने से पहले दोनों पत्रों का जिक्र तुम्हारे फूफा से कर देना जरूरी था। सुनकर उन्होंने कहा कि मुझसे कहने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा था तो मुझसे विवाह क्यों किया ? कुछ देर तक उन्होंने कहा कि मैं हरामजादी हूँ। मैंने कोई प्रतिवाद हीं किया। उस दिन के बाद तुम्हारे फूफा मुझसे किनारा करने लगे। मुझे तो अब नाराज होने का अधिकार भी नहीं था। उन्होंने मेरी परवाह करनी छोड़ दी। मैं इस योग्य थी भी। उनकी परवाह का अधिकार मुझे क्या था ? मैंने एक रोज उनके पास जाकर कह दिया कि आप चाहें तो मुझे घर से निकाल सकते हैं।
सती की यह भारतीय मान्यता नहीं है। वह कहती और करती है कि जिस घर में मैं बहू बनकर आयी हूँ उससे मेरी अर्थी निकले। इसके विपरीत मृणाल ने अपने पति से कहा कि मुझे कहीं बाहर रखने का प्रबन्ध कर दो।
मृणाल कोयला बेचने वाले बनिये के साथ गन्दी कोरी में रह सकती थी, पर पति ने उसके लिए शहर से बाहर जिस कोठरी का प्रबन्ध किया और खाने-पीने के सामान के साथ कुछ रुपये भी दिये, वहाँ से वह उस बनिये के साथ दूसरे शहर में चली आयी, जहाँ निर्धन और नीच जाति के लोग रहते थे। यदि मृणाल पतिव्रता के रूप में पति की आज्ञा मानकर घर के बाहर चली गयी थी तो पति की आज्ञा के बिना उस बनिये के साथ क्यों चली आयी ? तब उसका पतिव्रता धर्म कहाँ चला गया था ? उस बनिये से गर्भ था, जिसके कारण मृणाल ने एक लड़की को जन्म दिया। उसके बाद मृणाल उस मृणाल को नगर को छोड़कर चली आयी और उसकी मृत्यु हो गयी। यह भारतीय पतिव्रता और सती का आदर्श नहीं है।
इस प्रकार त्यागपत्र उपन्यास में मनोवैज्ञानिक चेतना का यह पक्ष इसे केवल एक सामान्य कहानी नहीं बनने देता, बल्कि यह मानवीय संवेदनाओं और मनोभावों का एक गहन दस्तावेज बन जाता है। जैनेंद्र कुमार ने इसमें मनुष्य के आंतरिक संसार को जिस प्रकार से उकेरा है, वह हिंदी साहित्य में मनोविश्लेषणात्मक उपन्यासों की परंपरा को समृद्ध करता है। इस दृष्टि से त्यागपत्र न केवल एक साहित्यिक कृति है, बल्कि मनोविज्ञान और दर्शन का एक सुंदर सम्मिश्रण भी है।
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