विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम और हिन्दी की राष्ट्रीय काव्यधारा काजी नज़रुल इस्लाम (1899-1976) बांग्ला साहित्य के प्रमुख कवि, संगीतकार और दार्शनिक थ
विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम और हिन्दी की राष्ट्रीय काव्यधारा
काजी नज़रुल इस्लाम (1899-1976) बांग्ला साहित्य के प्रमुख कवि, संगीतकार और दार्शनिक थे, जिन्हें "विद्रोही कवि" (बिद्रोही कोबी) के रूप में जाना जाता है। उनकी कविताएँ और लेखन सामाजिक अन्याय, धार्मिक कट्टरता और औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विद्रोह की भावना से ओतप्रोत हैं। नज़रुल की रचनाओं में मानवता, स्वतंत्रता और समानता के प्रति गहरी प्रतिबद्धता दिखाई देती है। उन्होंने बांग्ला और हिंदी सहित कई भाषाओं में रचनाएँ कीं और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई।
एकता के महान प्रतीक काजी नज़रुल इस्लाम ने बंगला-काव्य में क्रान्ति और विद्रोह का एक नया स्वर फूँका। उनका व्यक्तिगत जीवन एक 'धूमकेतु' की तरह रहा। 'धूमकेतु' की तरह उन्होंने एकाएक साहित्य जगत में प्रवेश किया। पश्चिम बंगाल के एक विपन्न परिवार में जन्मे नज़रुल को यद्यपि समुचित शिक्षा-दीक्षा नहीं मिली, लेकिन अपनी इच्छाओं के दमन की शिक्षा भी उन्होंने नहीं ली। उनका स्वर अत्यन्त मधुर था। घर का एकरस वातावरण उन्हें अतिशीघ्र उबा देता था, इसलिये वे प्रायः पलायन करके कभी नाटकमण्डली में शामिल हुये और कभी किसी के यहाँ नौकरी कर ली ।
1899 ई० में पैदा नज़रुल 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध में सेना में भर्ती हो गये और अन्ततोगत्वा "हवलदार' पद से विभूषित हुये। युद्ध से लौटकर उन्होंने 'धूमकेतु' नामक पत्र निकाला जो बहुत दिनों तक न तो चल सका, न ही प्रसिद्ध हुआ, मगर उन्हें बंगला साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण स्थान अवश्य दिला गया। यदि कोई बंगला कवि कह सकता है कि एक दिन वह प्रातः जगा और उसने देखा कि वह प्रसिद्ध हो गया है, तो वह कोई और नहीं नज़रुल ही थे।
नज़रुल ने जब साहित्य में प्रवेश किया, वह युग ही विद्रोही था। यूँ तो क्रान्तिकारी गुट सन् 1857 की असफलता के बाद से ही क्रियाशील था, अब बंग-भंग से बंगाल की जनता भी जाग चुकी थी। परन्तु अखिल भारतीय रूप में इस महादेश की जनता ने इसी समय अंगड़ाई ली। देखते-देखते वह उठ बैठी और जययात्रा पर निकल पड़ी। इसी समय नज़रुल ने ललकार कर कहा -
आमि दुवार
आमि भेंगे कोरि सब चुरमार,
आमि अनियम उच्छृंखल
आमि दले जाई जतो बन्धोन
जतो नियम-कानून श्रृंखल ।
(मैं दुर्बार हूँ, मुझे कोई रोक नहीं सकता। मैं सबको तोड़-तोड़कर चकनाचूर करके रख देता हूँ। मैं अनियम हूँ, मैं उच्छृंखल हूँ। जितने भी बन्धन हैं, नियम, कानून तथा शृंखला हैं, मैं उन्हें पैरों तले रौंदकर आगे बढ़ जाता हूँ।)
क्रान्ति का आह्वान करते हुये वे कहते हैं -
विपलों आनि विद्रोह कोरि
नेचे-नेचे गोंफे दीई ताव
आमि धृष्ट
आमि दांत दिया क्षिणि विश्वमायेर अंचल ।
( मैं क्रान्ति को बुला लाता हूँ। मैं विद्रोह करता हूँ। मैं नाच-नाच मूँछों पर ताव देता हूँ। मैं ढीठ हूँ। मैं दांतों से विश्वमाता के आंचल को फाड़ डालता हूँ।)
वे अपनी एक कविता में स्वयं को विद्रोही भृगु मानते हुये विश्व के तापों से उदासीन विधाता को चुनौती देते हुये कहते हैं कि 'मैं विद्रोही भृगु हूँ। मैं ईश्वर के सीने पर अपने चरणों का चिह्न अंकित कर दूँगा। मैं संहारक हूँ; शोक, ताप आदि के प्रति एक प्रकार से उदासीन विधाता के सीने को फाड़ डालूँगा ।'
कवि नज़रुल इस्लाम की कविता समयानुकूल है। उस समय की कविता में केवल विद्रोह करना और तोड़-फोड़ मचाना, विध्वंस करना ही अच्छा मालूम होता है। फूलों के अन्दर ज्वालामुखी पैदा करने की अनूठी कल्पना कवि की देन है। उस समय विद्रोह करना ही कवि का परम लक्ष्य बन गया था। कवि इस्लाम की इस युग की कविता में इतना अधिक ओज है कि पाठक पढ़ते समय अपने को सैनिक अनुभव करने लगता है।"
नज़रुल की कविता में बम, माइन, डायनामाइट आदि शब्दों की भरमार है। परतन्त्रता के उस युग में इन वस्तुओं का कविता में प्रयोग एक विशेष प्रकार का रोमांच पैदा करता था। एक तो ऐसी शब्दावली और उसपर विद्रोही विचारों ने मिलकर उस युग के बंगाली नौजवानों के हृदय को मुग्ध एवं उत्तेजित कर दिया। यही कारण है कि बंगला आलोचक बुद्धदेव बसु को नज़रुल और बॉयरन में काफी समानता दिखाई देती है। वे कहते हैं- "उन्हीं की तरह नज़रुल की प्रतिभा ऐश्वर्यशालिनी है, पर उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। न मालूम कब धोखा दे जाये। उनमें वही लट्ठमारपन है, वही रुक-रुक कर चलने वाला करीब-करीब स्वाभाविक प्रवाह है, बिना परिश्रम के अनायास प्राप्त कारीगरी है, अनायास प्राप्त और लापरवाह। सर्वोपरि विचारों की वही शीर्णता है।"
हिन्दी में ऐसी क्रान्तिकारी, विद्रोही, राष्ट्रभक्ति की परम्परा माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', सुभद्राकुमारी चौहान, रामनरेश त्रिपाठी, रूपनारायण पाण्डेय, निराला, भगवतीचरण वर्मा आदि कवियों में प्राप्त होती है। इन हिन्दी कवियों की कविता की मूल भावना देशभक्ति है; और देशभक्ति में राग और उत्साह का मिश्रण है। इस उत्साह का सबसे प्रबल विस्फोट भारत की आत्मा निराला, नवीन, दिनकर माखनलाल चतुर्वेदी आदि के स्वर में चीत्कार कर उठी है-
पशु नहीं वीर तुम समर-शूर क्रूर नहीं, कालचक्र में हो दबे
आज तुम राजकुंअर सरताज !
पर क्या है, सब माया है - माया है।
मुक्त हो सदा ही तुम
बाधा - विहीन- बन्ध छन्द ज्यो! - निराला
दिनकर की 'हुंकार' में भारतीय युवक के हृदय के विद्रोह की ज्वाला प्रचंड होकर हुंकार उठी है-
पौरुष की बेड़ी डाल पाप का अभय रास जब होता है।
ले जगदीश्वर का नाम खड्ग कोई दिल्लीश्वर धोता है।
धन के विलास का बोझ दुखी-दुर्बल दरिद्र जब ढोता है।
दुखियों को भूखों मार, भूप जब सुखी महल में सोता है।
सहती सब कुछ मन मार प्रजा, कसमस करता मेरा यौवन ।
नवीन ने आततायियों के विरुद्ध अपनी जनशक्ति को उद्बोधित किया-
ओ भिखमंगे अरे पतित तू ओ मजलूम अरे चिर दोहित,
तू अखंड भंडार शक्ति का जाग अरे निद्रा-सम्मोहित ।
प्राणों को तड़पाने वाली हुंकारों से जल थल भर दे,
अनाचार के अंबारों में अपना ज्वलित फलीदा भर दे।
नज़रुल ने जो ओजस्वी व विद्रोही कविताएं लिखीं, उनमें प्रतिपक्षी के लिये घृणा और विनाश- कामना की स्वाभाविक उपस्थिति थी। इस दृष्टि से हिन्दी की कविताएं थोड़ी भिन्न हैं। उनमें प्रतिहिंसा और प्रतिशोध - भावना के लिये गुंजाइश कम है । स्वतन्त्रता संघर्ष में गाँधीजी के प्रभाववश, हिन्दी कविताओं में नज़रुल के प्रहारक आक्रामक आक्रोश के बजाये आत्मबलि के सात्विक ओज की सम्पन्नता है -
मंज़िल बहुत बड़ी है पर शाम ढल रही है।
सरिता मुसीबतों की आगे उबल रही है।
तूफान उठ रहा है प्रलयाग्नि जल रही है।
हम प्राण होम देंगे, हंसते हुये जलेंगे! -
आलोचकों का मन्तव्य है कि नज़रुल का विद्रोह कोई उद्देश्यमूलक रंग नहीं प्राप्त करता। ऐसा प्रतीत होता है कि मात्र विद्रोह के लिये विद्रोह करना ही उनका लक्ष्य है। यह बात कुछ हद तक सही भी है। उनकी कविताओं में सोद्देश्यता तथा बुद्धि से बढ़कर है स्वतःस्फूर्ति। लेकिन ओजमय शब्दों के प्रवाह में वे हमें ऐसे बहा ले जाते हैं कि कविताओं की अन्तर्वस्तु का अभाव हमें बिल्कुल नहीं खटकता। इसके पश्चात भी उनकी कविताओं में कुछ स्पष्ट उद्देश्य भी परिलक्षित होता है -
महा विद्रोही रण क्लान्त, आमि सेई दिन हबे शान्त,
जबे उत्पीड़ितेर क्रन्दन सेल आकाशे बतासे ध्वनि बेना,
अत्याचारीर खड्ग कृपाण भीम रण थमे रणिबे ना।
(मैं महा विद्रोही रणक्लांत होकर उसी दिन शान्त होऊँगा जिस दिन न तो उत्पीड़ित, की क्रन्दन ध्वनि आकाश में गूँजेगी और न अत्याचारी का खड्ग और कृपाण भयंकर होकर रणभूमि में दिखाई देगा।
इस प्रकार स्पष्ट है कि नज़रुल के विद्रोह का उद्देश्य अत्याचार का अन्त कर देना था। परन्तु लक्ष्य अभी बहुत दूर था अतः उस पर जोर न देकर अभी तो केवल विद्रोह की चंडी जगानी थी। विद्रोह का एक कारण यह भी था कि सर्वत्र सड़ी-गली प्रवृत्तियाँ, राजनीतिक गुलामी, सामाजिक रूढ़िवादिता एवं आधुनिकता का बोलाबाला था और नज़रुल इनसे लड़ने के लिये तैयार हैं।
हिन्दी कविताओं में व्यक्त उत्साह का एक रचनात्मक रूप भी है जो भारत के उत्कर्ष - उसके स्वर्णिम भविष्य के भावन में अभिव्यक्त होता था । स्वतन्त्रता से पूर्व हिन्दी के राष्ट्रीय कवियों ने भारत के मुक्ति-स्वर्ग के अगणित चित्रों द्वारा जनता के विषाद-संकुल रूप मन में स्फूर्ति और उत्साह भरकर राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण योग दिया। एक ओर जहां उन्होंने वर्तमान के रौरव चित्र अंकित किये, वहाँ दूसरी ओर उनके परिमार्जन के लिये भविष्य की उज्जवल कल्पनाएं कीं।"" रवीन्द्रनाथ ने हीं परमपिता से स्वतंत्रता के जिस स्वर्ग में अपने देश को जगाने की प्रार्थना की थी, हिन्दी के कवियों ने भी उसके शत-शत चित्र अंकित किये-
रूढ़ि जहाँ न हो आराधित
श्रेणि वर्ग में मानव नहीं विभाजित,
धन-बल से हो जहाँ न जन-श्रम शोषण
पूरित हों भव जीवन के सकल प्रयोजन।
इस तरह की तमाम हिन्दी कविताओं में सात्विक ओज और गर्व है। नज़रुल में ध्वंस है जबकि इनमें निर्माण के भव्य चित्र हैं। हिन्दी कविताओं का आधार आस्तिकता है अतएव इनमें आग और गरमी नहीं है, एक भव्य दीप्ति है।
कुल मिलाकर हिन्दी की राष्ट्रीय कविताओं में “देश के गौरवशाली अतीत की स्मृतियाँ, उस अतीत से वर्तमान की तुलना व अपनी क्षुद्रता का अहसास, जन्मभूमि के प्रति प्रेम व उसकी भौगोलिक एवं सांस्कृतिक सम्पत्ति का वर्णन, परतंत्रता के कष्टों की अनुभूति तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति का संकल्प, कुरीतियों के उन्मूलन का आग्रह, अन्याय और शोषण का विरोध, राष्ट्रीय नेताओं द्वारा संचालित राजनैतिक आन्दोलनों का हृदय से समर्थन, स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये विदेशों में किये गये प्रयासों की सराहना और उसके लिये स्वयं बड़े बड़े त्याग का निश्चय, वीर पूजा, क्रान्ति की आकांक्षा, उज्जवल भविष्य का स्वप्न इत्यादि भाव एवं विचारगत प्रवृत्तियाँ विन्यस्त हैं।"
गीतों के क्षेत्र में टैगोर के बाद बंगला गीत साहित्य में नज़रुल का ही स्थान है। टैगोर ने लगभग दो हज़ार गीत लिखे, पर नज़रुल ने अपेक्षाकृत कम समय में उनसे कहीं अधिक गीत लिख डाले। ग्रामोफोन रिकॉर्ड के गानों में तो वे सबको पीछे छोड़ जाते हैं। उनकी प्रेम कविताओं में कीट्स का चित्ररूप, बॉयरन का आवेग तो है पर टैगोर की गहराई का अभाव है। रवीन्द्रनाथ का काव्य बंगला साहित्य की सबसे बड़ी सम्पदा है। परन्तु काजी का महत्त्व एक दृष्टि से उससे भी अधिक है वह यह कि वे संयुक्त बंगाल के पुनरुद्धार में सबसे बड़ी शक्ति हैं। शुद्ध काव्य विचार में भले ही वे अति उत्कृष्ट न हों पर जीवन, संस्कृति और इतिहास की दृष्टि से उनका महत्व कम नहीं। वे पूर्वी बंगाल के राष्ट्रीय कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुये तो इन कारणों से ही।
यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि चाहे नज़रुल की विद्रोही कविताएं हों या हिन्दी की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविताएं, उनकी कुछ सीमाएं हैं ही। क्योंकि काव्य की आत्मा कोलाहल नहीं सहन कर पाती। प्रदर्शन आन्दोलन का एक अनिवार्य अंग है- परन्तु काव्य का वह दूषण है। अतएव, काव्य में आन्दोलन का प्रदर्शन एवं तात्कालिक उत्तेजना आदि से युक्त स्थाई रागात्मक रूप ही स्थायित्व प्राप्त कर सकता है। हिन्दी कवियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के समय अनेक आह्वान गीत लिखे, कीर्तिगान लिखे, जिनकी उस समय बड़ी धूम रही, लेकिन उनमें से अधिकांश को स्थायित्व प्राप्त नहीं हुआ। उनका जीवन कुछ महीनों से अधिक नहीं और यह स्वाभाविक ही था। वे उन आन्दोलनों की तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति थे और उनके साथ ही मौन हो गये। सामयिक प्रभाव का दूसरा नाम फैशन है और साहित्य भी फैशन से बच नहीं सकता।
हिन्दी में न जाने कितने कवियों ने राष्ट्रीयता की मूलधारा में अवगाहन लिये बिना स्फुलिंग उगले, लोगों ने दाद दी परन्तु गंभीर कवियों और पाठकों को इनमें आत्माभिव्यक्ति नहीं मिली। इसीलिये “भारत -भारती” के कवि को 'साकेत' व 'यशोधरा' में आत्माभिव्यञ्जन खोजना पड़ा, 'रेणुका' के कवि को 'कुरुक्षेत्र' में आकर आत्म-साक्षात्कार हुआ, नवीन को सांस्कृतिक कविताओं में अपनी आत्मा का रस उड़ेलना पड़ा और जो वैसा नहीं कर सके, वे काव्य-इतिहास के पृष्ठ में खो गये।
काजी नज़रुल इस्लाम और हिंदी की राष्ट्रीय काव्यधारा के बीच एक समानता यह है कि दोनों ने सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन की आवश्यकता पर जोर दिया। नज़रुल की कविताएँ और हिंदी के राष्ट्रीय कवियों की रचनाएँ दोनों ही स्वतंत्रता, न्याय और समानता के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाती हैं। हालाँकि, नज़रुल की रचनाएँ अक्सर अधिक विद्रोही और क्रांतिकारी स्वर लिए होती हैं, जबकि हिंदी की राष्ट्रीय काव्यधारा में देशभक्ति और राष्ट्रीय गौरव का स्वर अधिक प्रमुख है।
इस प्रकार, काजी नज़रुल इस्लाम और हिंदी की राष्ट्रीय काव्यधारा दोनों ने भारतीय साहित्य और समाज को गहराई से प्रभावित किया है।
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