हे ग्रीष्म ऋतु, तुम्हारी जय हो। तुम्हारी महिमा अपरंपार है। तुम ऐसी कालजयी नायिका हो, जिसके आते ही मनुष्य-जीवन में नया उत्साह उमंग भर जाता है। तुम्हारे
हे ग्रीष्म देवी ,हे प्रचंड तापसी
हे ग्रीष्म देवी! हे प्रचंड तापसी! इस बार कुछ तो कृपा करो, देवी। इस वर्ष रिकॉर्ड तोड़ने का संकल्प त्याग दो। हे सूर्यकांत किरणों की सम्राज्ञी, तुम्हारे प्रचंड कोप की चपेट में प्राणी यूँ तड़प रहे हैं जैसे द्यूत सभा में युधिष्ठिर अपना सर्वस्व हार चुके हों। तुम्हारी उज्ज्वल किरणें ऐसे प्रहार करती हैं जैसे बचपन में माँ के तीक्ष्ण वचन, "उठो राम! स्नान करो, कर्मक्षेत्र में प्रस्थान करो।" आलस्य के प्रेमी प्राणी अब विवश हो सूर्य-किरणों के पद-प्रहार से जागने लगे हैं।
हे तपोमयी! तुम्हारे प्रभाव में सड़कें ऐसी सूनी पड़ी हैं मानो विधवा की माँग। चौक-चौराहों पर केवल 'शीतलपेय', आइसक्रीम के विक्रेताओं की मंडली और जलजीरा-पुदीने के रसिक भक्तों का मेला लगा हुआ है। वातानुकूलक, पंखे, कूलर सभी भंवरों की भांति लगातार भिनभिना रहे हैं, किन्तु विद्युत आपूर्ति का खेल भी आँख-मिचौली बनकर ताप से व्याकुल प्राणियों के साथ हास्य विनोद करता हुआ प्रतीत होता है। हे विद्युत देवी , तेरा अस्तित्व अब प्रश्नचिह्न-सा लगने लगा है।
गांवों में सूने पड़े वृक्षों की छाया ऐसे प्रिय लगती है जैसे युद्धभूमि में घायल योद्धा को जल की एक बूंद। नगरों के बाजारों में सन्नाटा पसरा हुआ है, और ग्रीष्मोत्सव के नाम पर बालकों को धूप में बैठाकर बड़ों ने "समर कैम्प" नामक आधुनिक तपस्या प्रारम्भ करा दी है।
हे तापगर्वित देवी! तुम्हारे भय से ही सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक, एवं आर्थिक गतिविधियां चौक-चौराहों से हटकर वातानुकूलित कक्षों में सिमट गई हैं। पान की दुकान, चाय की दुकानें उजड़े हुए हस्तिनापुर की भांति वीरान हैं। राजमार्गों पर चलते यात्री ऐसे दिखाई देते हैं जैसे मरुस्थल में पथभ्रष्ट हुए प्राणी, जिनका एकमात्र लक्ष्य है शीघ्रातिशीघ्र अपने घर पहुंचना।
हे सुदीप्त मुखमण्डला! तुम्हारे प्रचंड तपन से धरती की छाती दरक गई है, जल के साधन सूख चले हैं, और धरा की धूल उन्मुक्त होकर वायु में उड़ती है जैसे गांधारी के शाप से पीड़ित कृष्णवंशी यादव एक-दूसरे को नष्ट करने के लिए आतुर हों। तुम्हारे कोप के कारण मधुर-मधुर बातें करने वाले लोग भी एक-दूसरे को देखते ही क्रोधी दुर्वासा की भांति तुनक जाते हैं।
हे ग्रीष्म ऋतु, तुम्हारी जय हो। तुम्हारी महिमा अपरंपार है। तुम ऐसी कालजयी नायिका हो, जिसके आते ही मनुष्य-जीवन में नया उत्साह उमंग भर जाता है। तुम्हारे प्रचंड आगमन से पूर्व नर्मदा-सिंधु-गंगा जलधाराओं में स्नान करते साधु-संत, विद्यार्थी और प्रेमी-युगल अचानक तुम्हारे दर्शन मात्र से इस लोक को छोड़कर वातानुकूलित कक्षों की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। विद्यालयों में तालाबंदी तुम्हारे आदेशानुसार हो जाती है, कार्यालयों में कर्मचारी बार-बार जलपान के बहाने उठकर चाय-पानी की बजाय ठंडे जल की तलाश में भटकते फिरते हैं। हे ग्रीष्म, तुम्हारी कृपा से देश में बिजली विभाग और वाटर कूलर कंपनियों की बिक्री आकाश छूने लगती है।
तुम्हारे आगमन के साथ ही विवाह-मंडपों में बैंड-बाजों की आवाज़ के साथ-साथ बरातियों के माथे से टपकती स्वेद की धाराएँ भी ताल से ताल मिलाने लगती हैं। शीतल पेय की स्टालों के बाहर लगी क्यू शादी प्रांगन के दूसरी ओर स्थित आइसक्रीम पार्लर तक जाकर उनका कुशल-मंगल पूछने लगते हैं। तुम्हारे ताप से व्याकुल नर-नारी, ककड़ी-तरबूज खाकर, गन्ने का रस पीकर आत्मा को तृप्त करते हुए इस भ्रम में रहते हैं कि शायद तुम्हारी ऊष्मा से मुक्ति मिल जाए। हे ग्रीष्म! क्रोध त्यज्यताम्, करुणा दर्शय।
सड़कों पर डामर तुम्हारे तेज में द्रवीभूत हो जाता है, राह चलते लोग ऐसे प्रतीत होते हैं मानो अग्निपरीक्षा हेतु निकले हों। भैसें ग्वालों के खूँटे त्यागकर तालाबों की शोभा बढ़ाने लगती हैं, किशोर लड़के धूप में घूमते-घूमते विदेशी मेमों की तरह तन 'टैन' कराते हुए फोटो डालते हैं, जिनके नीचे लिखा होता है—"समर वाइब्स इन देसी स्टाइल।"
हे प्रचंड तापवाली तापत्रयी देवी! तुम्हारी कृपा से शयनकक्षों में "सीलिंग फैन" से आगे बढ़कर "स्प्लिट ए.सी." तक का संक्रमण काल प्रारंभ हो जाता है।
तुम ऐसी दयालु हो कि बच्चों को परीक्षा से मुक्ति देकर उन्हें सड़कों पर देर रात तक खेलने का वरदान देती हो, परंतु तुम्हारा ताप ऐसा प्रचंड कि वही बालक अब सायंकाल से पूर्व ही "इंडोर गेम्स" की शरण में चले जाते हैं। ओ तापवती देवी! पोलरायड ऐनक और सनस्क्रीन लोशन के माध्यम से तेरे तेज को अवरुद्ध करने के निष्फल प्रयास हम तुच्छ प्राणी लगातार करते रहते हैं।
ओ 'हवा से अनुकूलित' देवी! तुम्हारे प्रभाव से ओपेन एअर रेस्ट्रां अपना बोरिया-बिस्तर उठाकर 'एसी' की गुफाओं में शरण ले लेते हैं। सफ़ेद खरबूजे मंडियों में वैसे सज जाते हैं जैसे कृषक अपनी खेत की फसल को संकलित करके ढेर लगाता है ।
हे शीत रसपान प्रिय जनविनाशिनी! यूनिवर्सिटी बंद होते ही यार-दोस्त मिलकर 'वीडियो पर नई फ़िल्में' देखने का शग़ल शुरू कर देते हैं, और संतरे-गन्ने के रस के ठेले जैसे यक्ष-यज्ञ में भाग लेने को आतुर प्रतीत होते हैं।तुम्हारी मेहरबानी से मक्खियाँ अपने माता–पिता सहित पूरे असंयमित, अनुशाशनहीन, भुक्खड़ परिवार के साथ फलों पर टूट पड़ती हैं। लू से पीड़ित मरीज़ों से अस्पताल भरने लगते हैं, और "डॉक्टर गण तुम्हारे इस सौजन्य से कुछ यूँ प्रसन्न होते हैं, जैसे साल भर की आजीविका का ठेका फिर से मिल गया हो। गर्म हवाओं के संग उनकी कमाई भी लू जैसी चलने लगती है!"
रसीले तरबूज,गबरीले खरबूज ,बौराए आम , लैला की उँगलियाँ, मजनू की पसलियाँ जैसी ककड़ियाँ—तुम्हारे नाजुक कलेवर की परछाइयाँ बन यत्र-तत्र मंडियों में फैल जाती हैं।
हे ग्रीष्म, हे तापमयी भगवती, तुम्हारा क्या वर्णन करें! तुम न जल हो, न अग्नि—तुम तो सीधा एलपीजी सिलेंडर के भीतर से निकली वह ज्वाला हो, जो अब सीधे पृथ्वी पर उतर आई है।
इस बार कुछ तो दया करो देवी! अपनी तेजस्वी किरणों का प्रकोप कम करो। मानवों की चीख-पुकार सुनो, हे उग्रतापिनी, हे विद्युत अपव्ययिनी, हे तपोरूपा ग्रीष्म देवी! तुम्हारी जय हो, किंचित कृपा हो।
वंदे तापमयी! वंदे ग्रीष्मेश्वरी!
- डॉ. मुकेश 'असीमित '
निवास स्थान: गंगापुर सिटी, राजस्थान
पता -डॉ मुकेश गर्ग ,गर्ग हॉस्पिटल ,स्टेशन रोड गंगापुर सिटी राजस्थान पिन कॉड ३२२२०१ पेशा: अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ ,लेखन रुचि: कविताएं, संस्मरण, लेख, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
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