मरूद्यान अचानक ही मेरी सखि मीना का फोन आया....तुम्हारे शहर के मंदाकिनी आश्रम में इन दिनों भागवत कथा चल रही है। कथावाचक हैं मेरे गुरू, पंडित राजन शर्म
मरूद्यान
अचानक ही मेरी सखि मीना का फोन आया....तुम्हारे शहर के मंदाकिनी आश्रम में इन दिनों भागवत कथा चल रही है। कथावाचक हैं मेरे गुरू, पंडित राजन शर्मा। जरूर सुनने जाना।
मंदाकिनी आश्रम अपने ढंग की एक अलग ही जगह है। इस आश्रम की स्वामिनी हैं श्रीमती यशोदा देवी। भारी भक्तिन महिला हैं। दान धरम करने में अव्वल। शहर में कहीं भी प्रवचन, सत्संग, कथापुराण हो रहा हो, वे अवश्य पहुँच जाती हैं। अत्यंत भक्तिभाव से भाग लेती हैं। सब उनका बहुत आदर करते हैं। कभी कोई नहीं कहता कि आप तो मुसलमान हो।
जबकि सभी जानते हैं कि यशोदा देवी के स्वर्गीय पिता मुसलमान थे। घटना कोई साठ सत्तर बरस पहले की है। यहाँ का कोई ट्रक ड्राइवर गुजरात तरफ सामान लेकर गया था तो एक अनाथ बालक को साथ ले आया था। बालक ट्रक की साफ सफाई करता, सेवा में लगा रहता, सीखता भी। बड़ा होता गया। नाम था करीम। ड्राइवर की मुत्यु के बाद ट्रक मालिक ने करीम को ही ड्राइवर बना दिया। कुछ करीम का मीठा स्वाभाव, कड़ी मेहनत , कुछ भाग्य की मेहरबानी, ट्रक मालिक ने मरते समय ट्रक करीम के ही नाम कर दिया। पचास की उम्र पहुँचते पहुँचते करीम के पास कई ट्रक कई बसें तरह तरह की कई गाड़ियाँ हो गईं। बूढ़ा होते होते तो ट्रांसपोर्ट जगत का बेताज बादशाह । उसने हिन्दू ब्राह्मण लड़की से शादी की। लड़की ने शर्त रखी थी कि वह हिन्दू ही रहेगी। हिन्दू धर्म, हिन्दू कर्म, हिन्दू जीवन। वह वैसी ही रही। करीम ने पूरा मान दिया। दो बच्चे हुए। इकबाल और यशोदा। बच्चों को छूट थी जो भी घर्म माने। इकबाल ने इस्लाम माना। यशोदा ने हिन्दू। दोनो में भारी प्रेम।
बेटी यशोदा की शादी के लिये भी उसने खोजा उच्चशिक्षित ब्राह्मण लड़का। प्रशासनिक अधिकारी। ट्रांसपोर्टजगत के बादशाह की बेटी की शादी। भारी जमावड़ा। इलाके की नामी हस्तियाँ शामिल। शानदार शादी। पूरे हिन्दू रीति रिवाजों से वैदिक मंत्रों के साथ । पंडितजी ने जैसा निर्देश दिया, पिता ने वैसा ही किया।
बेटा इकबाल पिता के साथ कारोबार संभाल ही रहा था। वह भी पिता की तरह उदार, मिलनसार, मददगार। उसकी शादी के लिए मुस्लिम परिवार की लड़की खोजी गई। लड़की वालों को बता दिया जाता कि हमारा परिवार हिन्दू मुस्लिम मिश्रित है। परिवार हिचकते। पर एक परिवार में लड़की ने ही कहा कि वह हिन्दू मुस्लिम एका वाले परिवार में ही शादी करेगी। इस्लामिक रीति रिवाजों के साथ इकबाल भाई कि धूमधाम से शादी हुर्इ्र। पाँच वक्त की नमाजी बहू नूरजहाँ की अपनी पूजा पाठी सास के साथ खूब निभती।
इस परिवार से मेरा कोई विशेष संबंध नहीं था। पर इस परिवार का शहर में नाम बहुत था। धन दौलत रुतबा यह सब तो था, दम बहुत था। दुनिया में, देश में कहीं कितना भी हिन्दू मुस्लिम बवाल हो, यहाँ की प्रेमिल फिजा में कोई असर नहीं। कोई असर से प्रभावित वाले, प्रभावित करने आ भी जायें, तो खुद प्रभावित हो जाते।
ऐसा ही भयंकर बवाल से पूरा देश सहमा हुआ था कि सखि मीना का भोपाल से फोन आया....मंदाकिनी आश्रम में पंडित राजन शर्मा की भागवत कथा चल रही है,तुम जरूर जाना।
मंदाकिनी आश्रम के बारे में बता दूं। यशोदाजी के कोई संतान नहीं हुई। नौकरी से अवकाश प्राप्ति के बाद उनके पति ने सोचा कि वे अपना शेष जीवन भगवत भक्ति और जनहित के कार्यों में व्यतीत करेंगे। उन्हें इस शहर का शांत, सरल, स्नेहिल वातावरण बहुत पसंद आया और उन्होने मंदाकिनी आश्रम की स्थापना की। कहना न होगा कि इस आश्रम के बनने, विकसित होने, धार्मिक और जनहित के कार्यों की रूपरेखा बनाने से लेकर उनके सफल क्रियान्वयन , यानी हर कदम में भाई इकबाल का ही हाथ रहा। आश्रम में एक सुंदर मंदिर का निर्माण हो ही रहा था कि यशोदाजी के पति सिधार गये। अब तो सारी जिम्मेदारी ही इकबाल भाई पर। मंदिर का आर्किटेक्ट कैसा हो, किस देवी देवता की प्रतिमा कहाँ हो, भोर की शुरुआत किस स्तुति से हो, वास्तुविशेषज्ञ से लेकर विशेषज्ञ पंडित के चयन में दोनो भाई बहन का घंटो विचार मंथन। फिर क्रियान्वयन भाई के मुस्तैद निर्देशन पर। बीच बीच में भारी ज्ञानी,ध्यानी यशोदाजी का पंडित पुजारियों से भारी विवाद हो जाये, तब इकबाल भाई ही जाकर महाराजजी लोगों को हाथ पाँव जोड़कर मना कर लाते।
और अब स्वर्गीय पति की मोक्ष प्राप्ति के लिये यशोदाजी भागवत कथा करवा रही थीं।फोन पाते ही मैं जल्दी से तैयार होकर मंदाकिनी आश्रम पहुँची। चारों तरफ इकबाल भाई के साले और यशोदा बहन के देवर सजावट, व्यवस्था आदि संभालने में जुटे हुए थे। स्वागत द्वार पर इकबाल भाई स्वयं तैयार खड़े थे। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और मुझे पंडाल तक लेजाकर सादर कुर्सी पर बैठाया। व्यासपीठ पर विराजमान महाराजजी कृष्णामृत बरसा रहे थे। मैंने वहीं से व्यासपीठ को प्रणाम किया और मगन होकर कथा सुनने लगी।
कथा समाप्त हुई। फिर आरती। आरती के बाद शांतिपाठ। जयकारा। प्रसाद वितरण। पंडितजी अपने विश्राम कक्ष की ओर चले। कुछ लोग उनके साथ चले। मैं भी। कक्ष में पंडितजी पलंग पर गावतकिये के सहारे बैेठ गये। लोग पास रखी कुर्सियों पर। मैं भी। लोग पंडितजी से बतियाने लगे कि एक महिला पंडितजी के लिये गिलास में दूध लेकर आई। पंडितजी बोले...रख दो बेटा। महिला दूध का गिलास पास की मेज पर रखकर चली गई। एक सज्जन ने मेरी ओर देखा। बोला...दीदी, एक ढक्कन लाकर दूध ढंक दीजिये।
मैं उठकर किचन में गई। बर्तनो के बीच गिलास के लायक ढक्कन खोजने लगी कि तभी नूरजहाँ भाभी आ गईं। एकदम बिगड़ने लगीं...निकलिये निकलिये, मैं यहाँ पंडितजी का पथ्य बना रही हूँ। आप कैसे घुस गईं?
भाभी मैं दूधवाले गिलास के लिये ढक्कन...
हाँ... मैं दे रही हूँ, आप बाहर निकलिये।
मैं बाहर भागी। भीतर नूरजहाँं भाभी बड़बड़ाती हुई ढक्कन खोजती रहीं..”.मैं यहाँ गंगाजल से पूरा किचन शुद्ध कर, नहाधोकर पंडितजी के निर्देशन अनुसार पूरी शुद्धता से पथ्य बना रही हूँ, सबको मनाही है इस किचन में घुसने की और आप...“
मैं कश्यप गोत्रीय क्षोत्रीय ब्राह्मण, हतप्रभ सी बाहर खड़ी पाँचों वक्त की नमाजी नूरजहाँ भाभी की बमबारी झेलती रही। ढक्कन देती हुई भाभी कहने लगीं.... बुरा मत मानियेगा दीदी....पूजापाठ का मामला है न। कोई त्रुटि नहीं रहनी चाहिये इसीसे....
विह्नल सी मैं ढक्कन लेकर गई। दूध का गिलास ढंका। चुपचाप बैठ गई। लोग पंडित्जी से बतिया रहे थे। एक सज्जन कह रहे थे...मेरे बागीचे के आम बहुत मीठे हैं पंडित जी, कल मैं ठाकुरजी को अपने बागीचे के आम भेंट करूंगा। थोक व्यापारी रोशनभाई बोले...कल का भंडारा तो मेरी तरफ से...।
मैं दुखी हेाकर कहने लगी...पंडितजी मैं तो ठाकुरजी के लिये कुछ भी नहीं ला पायी। दरअसल मीनाजी का फोन आते ही मैं जल्दी जल्दी तैयार हुई और पर्स लेकर निकल पड़ी। रास्ते में एक फलवाले से आधादर्जन केले खरीदे। सोचा, आज मुझ गरीब की यही भेंट ठाकुरजी को। मगर यहाँ आते हुये रास्ते में मुस्लिम मुहल्ला पडता है पंडितजी। गरीब सा है मुहल्ला। एक दृश्य देखकर मेरा दिल भर आया। सड़क के किनारे एक ढहते से टीले पर एक बेहद जर्जर सा पुराना घर है, मुसलमानों का। आज देखा, घर के सामने एक बूढ़ी स्त्री बैठी है। सिर झुकाये। सामने कपड़ा बिछाये। मानो दुख और ग्लानि में गड़ी जा रही हो। मैंने रिक्शा रुकवाया। ऊपर चढ़कर स्त्री के पास पहुँची। केले उसके सामने बिछे कपड़े में रखे, पर्स में जो भी पैसा था, कपड़े में उड़ेल दिया और हाथ जोड़ लिये। स्त्री ने अकबकाकर मुझे देखा। आँखों में पानी भर आया। उसने भी हाथ जोड़ दिये। रिक्शे में बैठते हुए मैं बोली..”भैया,.अपना किराया कभी घर आकर ले जाना।“ पंडितजी मैं कृष्णजी की भेंट के लिऐ कुछ भी न ला सकी।
पंडितजी ठठाकर हँसे...अरे पागल, वह भेंट तो सीधे कृष्णजी को पहँच गई।
और पूरी सभा मानो कृष्ण की भुवनमोहिनी हँसी से दमक उठी।
- शुभदा मिश्र
14, पटेलवार्ड, डोंगरगढ़(छ.ग.)
मो.नं. 9182695,94598
COMMENTS