सारा आकाश उपन्यास में समर का अन्तर्द्वन्द्व पाठक को भावुक बना जाता है सारा आकाश उपन्यास में समर का अन्तर्द्वन्द्व एक ऐसा मार्मिक पहलू है जो पाठकों को
सारा आकाश उपन्यास में समर का अन्तर्द्वन्द्व पाठक को भावुक बना जाता है
सारा आकाश उपन्यास में समर का अन्तर्द्वन्द्व एक ऐसा मार्मिक पहलू है जो पाठकों को गहराई तक छू जाता है। यह उपन्यास हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक राजेंद्र यादव द्वारा लिखा गया है, जिसमें मध्यवर्गीय समाज के यथार्थ, संबंधों की जटिलताएँ और मनुष्य के आंतरिक संघर्ष को बेहद संवेदनशील तरीके से चित्रित किया गया है।
प्रारम्भ से अंत तक समर का अन्तर्द्वन्द्व कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक होता है। उसमें ऐसा अनोखापन है जिसे पढ़कर पाठक स्वयं भावुक हो उठता है। उपन्यास का आरम्भ समर की मनः स्थिति को पाठकों के समक्ष रखता है। वह भावुक है, महत्त्वाकांक्षी है तथा एक महान् व्यक्ति बनने के सपने देखता है। माता-पिता के दबाव के कारण उसका विवाह 'प्रभा' नाम की एक लड़की से हो जाता है जो दसवीं पास है। प्रभा सुन्दर भी है। समर ने अपने मन में विचार किया कि वह पढ़ी-लिखी है, उसकी बात को अवश्य समझेगी। पहली मुलाकात में ही वह अपनी बात उसके सामने रख देगा। पर यदि वह न मानी! उसके इसी अन्तर्द्वन्द्व के बीच समर को भाभी ने कमरे में धकेलते हुए दरवाजा बन्द कर दिया था। प्रभा खिड़की के सहारे सिर टिकाए उदास खड़ी थी। समर ने प्रभा के इस व्यवहार को अपना अपमान समझा। उसने सोचा कि इस प्रकार उसका जीवन केसे चलेगा! यही उसकी वेदना का कारण था। वह कमरे से निकल कर छत पर एक कोने में लेटा रहा, सोचता रहा विद्योत्तमा के इसी तरह के व्यवहार ने कालिदास जैसे मूर्ख को कवि बना दिया था। उसे लगा कि शायद उसका भाग्य उसके इधर-उधर के रास्ते बन्द करके उसके लिए एक निश्चित रास्ता खोल रहा है- ऊँचाई का रास्ता, मानवता का रास्ता ।
इसी दिमागी उठा-पटक में उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। वह रातभर रोता रहा। अपने मन की गहराइयों में सोचता रहा-"अभी उठ और बिना किसी से कुछ कहे-सुने बाहर निकल पहूँ तो कैसा रहे। कहीं चला जाऊँगा - कलकत्ता, बम्बई या हरिद्वार !" लेखक ने उसकी मनःस्थिति का बहुत सुन्दर वर्णन किया है, “धुआँ, अंगारों और भाप की भट्टी पर वह रात-भर भुनता और उबलता रहा। "
सारे घर में यह समाचार फैल गया कि समर प्रभा से नहीं बोलां। समर के मन में यह जानने की बेचैनी थी कि प्रभा ने अपने मायके जाकर उसके बारे में क्या कहा होगा। समर का मन उचाट रहने लगा था। न चाहते हुए भी वह प्रभा के विषय में सोचता रहता। घर में उसकी बुराई की कथा का कोई न कोई अंश आए दिन कान में पड़ता रहता। समर सोचता कि यह कैसे हो सकता है कि उसकी पत्नी चार दिन उसके घर रही और वह उससे एक शब्द भी नहीं बोला। वह एकान्त में बहुत रोना चाहता था। रोते-रोते बेहोश होना चाहता था और वह चाहता था कि वह बेहोशी कभी न टूटे।
छः महीने बीत गए पर प्रभा ने एक पत्र भी नहीं लिखा। शायद वह पढ़कर उपेक्षा से फेंक देता पर उसे तो लिखना चाहिए था ।बाबूजी के कहने पर प्रभा को अमर ले आया था। अमर ने बताया कि उसके घरवाले समर की प्रशंसा कर रहे थे और कह रहे थे कि प्रभा के जाने से उसकी पढ़ाई का नुकसान तो नहीं होगा। यह सुनकर उसे प्रभा के प्रति अपना व्यवहार अनुचित लगा तथा अपने व्यवहार का विश्लेषण करके उसका मन आत्मग्लानि से भर आया। दूसरे दिन प्रभा समर के लिए दूध लिए खड़ी रही लेकिन उन दोनों में कुछ संकोचवश तथा कुछ गलतफ़हमी के कारण बात नहीं हो पाई।
एक-दो दिन बाद उसके भाई आए तथा वह उनके साथ अपने मायके चली गई। वह प्रभा के साथ कल्पना में सुन्दर सुनहरे सपने बुनने लगा। लेकिन सत्य बड़ा कठोर था। कारण, प्रभा समर के व्यवहार को अलग तरीके से ले रही थी। उसे लग रहा था कि शायद समर उसे अपनी पढ़ाई में रोड़ा समझता है। वह भी पति के समान महत्त्वाकांक्षी थी । उसका सपना था कि उसका पति उच्च शिक्षा प्राप्त करके प्रोफ़ेसर बने । पर समर उसके व्यवहार को अपना अपमान तथा उसका घमंड ही मानता था। वह प्रभा से बदला लेना चाहता था। उसके शब्दों में, “प्रभाजी, अभी समझी नहीं हो कि आपके भाग्य ने आपको किसके सामने लाकर खड़ा कर दिया है ! जब समझ लोगी तो जानोगी कि मैं आदमी कैसा हूँ !"
प्रभा पर जैसे-जैसे काम का बोझ बढ़ता गया, समर खुश होता गया। उस पर अत्याचार होते देख उसे बड़ी प्रसन्नता होती। भाभी ने एक पुत्री को जन्म दिया। घर का सारा का सारा काम प्रभा पर आ पड़ा। प्रभा चुपचाप काम करती रहती। नया काम आ पड़ने पर समर सोचता, देखें, उसकी क्या प्रतिक्रिया है। नामकरण वाले दिन बनाये गये मिट्टी के गणेश जी को साधारण मिट्टी का ढेला समझ कर उससे बरतन साफ़ करना, छत पर जाकर बाल धोना, मुन्नी का विदा होना और एक दिन छत पर जाकर दालें बीनने के कारण अम्मा द्वारा उसके चरित्र पर लांछन लगाया जाना— यह सब घटता रहा। प्रभा सब सहती रही पर अन्तिम कलंक वह नहीं सह सकी। रात को वह अकेली छत पर बैठी रो रही थी। समर पानी पीने गया था। पानी पीकर लौट आया। पर अन्दर खलबली मची थी। आखिर रात के बारह बजे यह यों अकेले में रो क्यों रही है? समर ने तत्कालीन स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है- “मैं न जाने कब तक इस द्वंद्व और उद्वेलन की तूफ़ानी लहरों पर झूलता रहा- कभी तंद्रिल अवस्था में और कभी खूब सचेत जागते हुए।" वह उठा। उस समय उसका आत्मसम्मान भूत की तरह खड़ा हो गया। किसी तरह ऊपर गया। फिर से पानी पीकर प्रभा के सामने जाकर खड़ा हो गया। पर वह चुप, 'न हिली न डुली। बड़ी मुश्किल से समर ने कहा कि आधी रात में यहाँ बैठकर क्यों रो रही हो? उसकी कोई प्रतिक्रिया दिखाई नहीं दी। हाँ, आँचल में मुँह छिपाकर दुगुनी गति से रोने लगी। इस समय समर को अपनी उपस्थिति बिल्कुल व्यर्थ, अनावश्यक और अपमानजनक लगी। पर उसने कड़वे लहज़े में उसे उस समय न रोकर सवेरे रोने के लिए कहा।
प्रभा ने उससे कहा कि साल भर से जब चिन्ता नहीं कीं तो अब क्यों? 'जाकर सोओ।' ये उलाहने-भरे शब्द वह सह न सका। उसकी सारी विरोध की शक्ति समाप्त हो गई थी। वह वहीं उसके सामने धम्म से बैठ गया। सब गिले-शिकवे समाप्त हो गये थे। उस समय समर सोच रहा था कि एक निरीह, बेकसूर, किसी की लाड़-प्यार से पाली गई इकलौती लड़की को लाकर उसने क्या-क्या अत्याचार नहीं किए ! कौन-कौन से कहर उस पर नहीं तोड़े, क्या-क्या यातनाएँ उसे नहीं दीं ! उस अवस्था का वर्णन लेखक ने बड़े सुन्दर शब्दों में किया है, "उस क्षण तो ऐसा लगा जैसे आँसू, सिसकी, तड़प किसी में भी ऐसी शक्ति नहीं है कि हृदय के इस पश्चात्ताप और मन की इस बेचैनी को, छटपटाहट और मर्मांतक पीड़ा को बाहर निकाल कर ला सके।" उसका मन हो रहा था कि छज्जे से कूदकर आत्महत्या कर ले।
पूर्वार्द्ध का द्वन्द्व उत्तरार्द्ध में बदल गया था। अब समर के मन में प्रभा के विरुद्ध द्वन्द्व नहीं था बल्कि सामाजिक और घर की विपरीत परिस्थितियों के प्रति द्वन्द्व था । अब समर के सामने आगे पढ़ने का अहम् प्रश्न था। घर की स्थिति उससे छिपी नहीं थी।
घर को उसकी मदद की ज़रूरत थी और वह आगे पढ़ना चाहता था। प्रभा के पास घर में पहनने के लिए ढंग की धोती भी नहीं थी। उसकी धोती फटकर तार-तार हो गई थी। अम्मा और भाभी से प्रभा के लिए धोती के बारे में बात करने पर उन्होंने देने से साफ़ मना कर दिया तथा दहेज में पैसा न आने के ताने भी दिए। समर के लिए नौकरी की खोज भी अहम् मुद्दा बना गया था। एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज भी गया था पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। दिवाकर से कहा कि वह अपने पिताजी से कहकर उसे नौकरी दिला दे। एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज के अहाते में उसकी शिरीष भाई से बातचीत हुई। उस समय वह उन्हें नहीं जानता था पर उनकी एक बात ने उसके विचारों को झकझोर कर रख दिया कि स्कूल में अध्यापक बड़ा आदमी बनने की शिक्षा देते हैं। वह यह भूल जाते हैं कि भूख की लड़ाई लड़नेवाला बड़ा आदमी कैसे बन सकता है। शिरीष भाई के अनुसार जवाहरलाल नेहरू तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर बड़े आदमियों की सन्तान थे। उन्हें खाने-पहनने की चिन्ता नहीं थी। अपने आप बड़े आदमी बनते। उनकी बात में सच्चाई थी, वह समर के दिल को चीरती चली गई। समर अपने भविष्य के बारे में चिन्तित हो गया। शिरीष भाई से अलग हो जाने पर समर ने सोचा कि उसे उनका पता ले लेना चाहिए था।
समर जब दिवाकर के घर गया और उसे वहाँ शिरीष भाई फिर मिल गए। वह दिवाकर के चचेरे भाई थे। दिवाकर ने उन्हें समर के भावुक और दार्शनिक होने की बात पहले ही बता दी थी। शिरीष भाई अपनी बहन को मानसिक चिकित्सालय में छोड़ने आए थे। बातों-बातों में तलाक की बात चली। समर को लगा कि तलाक का कानून पास होने से समाज में भयानक गड़बड़ी फैल जायेगी। शादी-विवाह जैसी पवित्र चीज़ को लोग मन बहलाव का साधन बना लेंगे। पर शिरीष भाई के तर्कों के सामने उसकी हार हुई। शिरीष भाई का कहना था कि सम्पत्ति में लड़कों के समान लड़कियों का भी समान अधिकार होना चाहिए। इन सब बातों ने समर को नए दृष्टिकोण से सोचने के लिए मजबूर कर दिया। अब उसका अर्न्तद्वन्द्व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण था। उसने अपनी चोटी भी कटवा दी। प्रभा को पिलते देखकर उसे अच्छा नहीं लगता था। जब तक वह उससे नहीं बोलता था तब तक उसे परेशान देखने में मज़ा आता था पर अब वह उसे दुखी नहीं देख सकता था। घी की कमी को लेकर अमर के प्रभा से फ़ालतू के तर्क उसे अच्छे नहीं लगे थे। उसने पीछे से अमर को मार क्या दिया, घर में बवाल मच गया।
दिवाकर ने समर को अपने पिताजी के एक दोस्त की प्रेस में नौकरी दिलाई पर एक शर्त पर कि वह थर्ड इयर में प्रवेश लेगा। सवेरे पाँच बजे से ग्यारह बजे तक प्रूफ रीडिंग और उसके बाद कॉलेज जाना होता था। रिज़ल्ट आ गया था। वह किसी तरह द्वितीय श्रेणी में पास हो गया था, पर अमर हाईस्कूल में फेल हो गया था। समर ने अपनी चोटी कटा तो ली थी पर उसे संकोच और झेंप लग रही थी।
शिरीष भाई के साथ विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद करने से उसका दृष्टिकोण बदलने लगा। मन से वहम मिटने लगा। भारतीय संस्कृति का भूत उतर गया था। शिरीष भाई ने कहा "आत्महत्या के कैसे सुन्दर नाम हैं- आत्मज्ञान, ब्रह्म में लीन होना, माया-मोह के बन्धनों से छुटकारा, स्थितप्रज्ञता । अरे साहब, कौन आपके हाथ जोड़ने गया था कि आप इस संसार में आकर इसे कृतार्थ कीजिए ही?" पिता को यदि ब्रह्मज्ञान हो जाये और वह बेटे को माया मान कर उसका लालन-पालन ठीक से न करे तो बड़ा होकर बेटा उन्हें गालियाँ ही देगा। समर ने जब चमत्कारी शक्तियों को बात की तो उन्होंने विवेकानन्द के जीवन की एक घटना का उदाहरण देते हुए कहा कि इन चमत्कारी शक्तियों को प्राप्त करने में समय लगाने की बजाए हमें अपना ".
इस सच्चाई जीवन मानव-कल्याण के लिए अर्पित करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा, से हम इंकार नहीं कर सकते कि आदमी भूख और रोग में तड़प-तड़पकर मरता रहा और आपकी .". जीव मात्र की समानता भारतीय संस्कृति मानव मात्र के कल्याण का राग अलापती रही। के नारे लगाने वाले भारतीयों ने शूद्रों तथा स्त्रियों पर क्या-क्या अत्याचार नहीं किए?
समर को लगा कि उसके सामने प्रभा खड़ी है और वह प्रभा के सामने अपराधी की तरह सिर झुकाये खड़ा है।समर के समक्ष समस्याओं का भण्डार था। उसने प्रभा के लिए बारह रुपए की एक धोती खरीदी। उसने बीस रुपये उधार लिए थे। प्रभा को धोती देना बहुत कठिन हो गया। समर ने अम्मा के हाथ में धोती दी, पर जब उन्हें कुँवर ने बताया कि यह धोती भैया भाभी के लिए लाये हैं तब उन्हें बुरा लगा। घर में ताने दिये गये और धोती लाने का सारा उत्साह जाता रहा। वह आगे पढ़ना चाहता था पर बाबूजी के क्रोध के समक्ष इसकी अनुमति लेना कठिन लगने लगा।
समर नौकरी के लिए सवेरे चार बजे उठकर जाता था और ग्यारह बजे वापस आता था। वहाँ काम की चिकचिक, इधर घर की चिकचिक। जैसे ही घरवालों को पता चला कि समर नौकरी करने लगा है उनकी अपेक्षाएँ बढ़ गईं। वह पचहत्तर रुपए की नौकरी में क्या मदद कर सकता था? दाखिले तथा एक कमीज-पैंट के लिए पहले ही रुपए उधार ले चुका था। विपरीत परिस्थितियों में द्वन्द्व जैसे उसके भाग्य की रेखाओं में लिखा हुआ था। मामाजी आये। उन्होंने भी उसे माता-पिता के प्रति कर्तव्य समझाए। पर उस दिन तक वेतन नहीं मिला था। प्रेस वाले ने कहा था कि पचहत्तर रुपए पर साइन होंगे और साठ रुपए दिए जाएँगे। शुरू के पंद्रह दिन काम सीखने में निकल गए इसलिए उन दिनों का कुछ नहीं मिलेगा। समर परेशान होकर नौकरी छोड़कर आ गया। इसी अन्तर्द्वन्द्व में उसने प्रभा के नई चूड़ियाँ पहनने पर उसकी दोनों कलाइयों को आपस में ज़ोर से बजा दिया तथा मुट्ठियाँ भींचकर उसकी नई चमकती हुई चूड़ियों के टुकड़े कर दिए। चूड़ीवाली, अम्मा, भाभी सभी समर को फटी-फटी आँखों से देखने लगे। बाबूजी को जब पता चला कि समर नौकरी छोड़ आया है तो वह आपे से बाहर हो गए। उन्होंने समर खूब पीटा। समर के आगे से जवाब दे देने पर तो बाबूजी का गुस्सा और भी बढ़ गया तथा आस-पास के लोग भी इकट्ठे हो गए और बाबूजी ने समर से घर से निकल जाने को कहा। समर ने कहा कि वह अगले दिन वहाँ से चला जाएगा। पूरा घर एक तरफ था और वह तथा प्रभा एक तरफ। वह रात भर रोता रहा। लेखक के शब्दों में, "लोहे की सलाखों पर भुनते हुए कबाब की तरह मैं रात-भर अंगारों पर भुनता रहा।" और सवेरे प्रभा ने उसे जगा कर कहा कि आज आफ़िस नहीं जाना ।
तैयार रात में कई बार प्रभा ने उसका माथा छुआ था। कुछ मलती रही थी। वह उठा, हुआ और टिफ़न लेकर चला। तभी तार वाले ने दरवाज़ा खटखटाया। समर को लगा जैसे वह कोई हत्यारा है और पुलिस उसे पकड़ने आई है। तार मुन्नी के घर से आया था। लिखा था, 'मुन्नी मर गई।' समर को लगा कि मुन्नी को मार दिया गया है। उसी उलझन में उलझा हुआ वह स्टेशन गया। रेल में बैठा, रेल रुकी। उसे वहीं उतरना था, वह नहीं उतरा। समर की तत्कालीन स्थिति का वर्णन लेखक ने इस प्रकार किया है, "उस क्षण तो एक ही आवाज़ थी जो रेल की नियमित खटर खटर में दिमाग में गूँज रही थी, नसों पर हथौड़े चला रही थी और कानों में पैंडुलम की तरह टकरा रही थी-मुन्नी मर गई-मुन्नी मर गई— मुन्नी को मार दिया- मुन्नी को मार दिया।" गाड़ी ने सीटी दी। वह गिट्टियों पर उतर गया। पटरियों पर पाँव रखते ही दूसरी ओर से दूसरी ट्रेन आ गई। उसके बाद वह अर्न्तद्वन्द्व में फँस गया। कहीं चला जाए, साधु बन जाए या आत्महत्या कर ले। उसे लगा भीतर कोई दुहराए चला जा रहा है- "कूद पड़, चढ़ जा ! घबराकर अपने ऊपर देखा-सारा आकाश डग-डग चढ़ जा ! कूद पड़ करता घूमने लगा था।
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